किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्याय परिषह की विवेचना करते हुए कहा जीवन में जो परिषह आते हैं उसे जीत लेना।
परिषह का तात्पर्य है धर्माराधना में कष्ट आए उस समय धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होना। परिषह को दूसरे स्थान पर इसलिए रखा गया क्योंकि जिस व्यक्ति में विनय गुण होगा वही परिषह का पालन कर सकता है।
विनय में बहुत सहन शक्ति होती है। पहले लोग संयुक्त परिवार में आनंद से रहते थे। आज हमारे जीवन में कई प्रकार की समस्याएं आई है, प्रेम भाव की कमी आई है। इसका मूल कारण काल का प्रभाव नहीं बल्कि सहनशीलता की कमी है।
उन्होंने कहा एक बात ध्यान रखना दुख को सहन किए बिना, प्रतिकूलता को सहन किए बिना कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती है। सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा होने पर ही मोक्ष मिलता है।
शास्त्रकार कहते हैं आत्मा के साथ संबोधन करो, आत्मा ने नरक गति में कितना कष्ट सहन किया है इससे सहन करने की शक्ति आती है। आपकी इच्छानुसार कोई चीज नहीं मिले उसे सहन करो। परिषह जितने सहन करोगे उतनी ही ज्यादा कर्मों की निर्जरा होगी।
यह आपकी श्रद्धा व धैर्य की परीक्षा है। जीवन में दुख आ जाए तो आर्तध्यान मत करो, व्याकुल मत बनो। आपसे ज्यादा दुखी कई लोग हैं उन्हें याद करो। इससे आपका मन हल्का हो जाएगा। यह दुख को भूलने का फार्मुला है। आपसे अधिक दुखी को याद करोगे तब आपको लगेगा मैं कितना सुखी हूं।
कोई दुर्वचन सुनाए तो उस पर क्रोध नहीं करना, समभाव में रहना। यह सोचना कुछ कहा ही तो है, वार तो नहीं किया। महावीर भगवान की दीक्षा से ही उन पर उपसर्ग आते गए लेकिन समभाव से उन्होंने सहन किया। किसी के प्रति कोई दुर्भाव नहीं था तब ही उन्हें केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ।
अज्ञान परिषह में बहुत प्रयत्न करने के बाद भी ज्ञान नहीं आता। जब ऐसा क्षण आ जाए तो इतना सोचना पूर्व भव के ज्ञानावरणीय कर्मों का उदय हुआ है इसका नतीजा है मुझे ज्ञान नहीं चढ रहा है। लेकिन ऐसी स्थिति में पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए। प्रयत्न करने से एक दिन ज्ञान मिल जाएगा। पुरुषार्थ करने से ज्ञानावरणीय कर्म टूटेंगे। याद रखो धर्म मार्ग से विचलित नहीं होना है। सहन करने से कर्मों की निर्जरा होगी, पुण्यों का सर्जन होगा।