तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अपने मंगल प्रवचन ने फरमाया कि व्यक्ति को नैष्कर्म्य कर्म के प्रति जो मन में संकल्प विकल्प रहते हैं उन्हें छोड़ देना चाहिए और अपनी आत्मा में रत रहना चाहिए।
आध्यात्म की साधना में रत रहने से न केवल इन्द्रियों के प्रति आसक्ति कम होती है बल्कि जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष का मार्ग भी प्रस्थित होता है।
आचार्य प्रवर ने आगे फरमाया कि भगवान महावीर ने जो कहा था वह केवल तार्किक बातें नहीं थी, काल्पनिक या सुनी-सुनाई भी नहीं थी यह उनकी साक्षात अनुभूति थी।
इसमें किसी को संदेह नहीं करना चाहिए। आचार्य प्रवर ने सभी को आत्मा में रत रहकर स्वयं का एवं औरों का कल्याण करने की प्रेरणा दी। प्रवचन में एक कथानक के माध्यम से आचार्य प्रवर ने फरमाया कि व्यक्ति को किसी दूसरे का अधिपति न बनकर स्वयं का अधिपति बनना चाहिए।
व्यक्ति अगर संयम के माध्यम से इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ले तो वह परम आनंद की ओर अग्रसर हो जाता है। प्रवचन में कृतज्ञता के स्वर पूज्य प्रवर के समक्ष रखते हुए श्रीमती नीता गादिया, श्री शांतिलाल पोरवाल, श्री देवराज रायसोनी, श्री बाबूलाल बाफणा ने अपने विचार रखे।
तपस्या प्रत्याख्यान के क्रम में श्रीमती आशा बरड़िया ने बेंगलुरु चातुर्मास के 65वें मासखमण का प्रत्याख्यान किया। गौरतलब है कि आचार्य श्री महाश्रमण जी के अब तक के चातुर्मासों में सर्वाधिक मासखमण बेंगलुरु चातुर्मास के दौरान हुए। संचालन मुनिश्री सुधाकरजी ने किया।