Share This Post

Featured News / Featured Slider / ज्ञान वाणी

जीवन महल की नींव-भाव

जीवन महल की नींव-भाव

समझा-समझा एक है, अनसमझा सब एक । समझा सोई जानिए, जाके हृदय विवेक ।।

जिस हृदय में विवेक का. विचार का दीपक जलता है, वह हृदय देव-मन्दिर-तुल्य है। जिस हृदय में विवेक-विचार का दीपक नहीं है, वह अन्धकार-मय हृदय श्मशान के समान है। जब तक हृदय में विवेक तथा विचार की ज्योति नहीं जलती, तब तक कोई कितना ही उपदेश दे, समझाये बुझाये सब भैंस के सामने बीन बजाने के समान है, अन्धे के सामने कत्थक नृत्य दिखाने के वरावर है और बहरे के समक्ष शास्त्रीय संगीत गाने के तुल्य है। विचार शून्य मनुष्य कभी भी भले-बुरे का, हित-अहित का निर्णय नहीं कर सकता। इसलिए कहा है- आँख का अन्धा संसार में सुखी हो सकता है, किन्तु विचार का अन्धा मुखी नहीं हो सकता।

विचार, और विवेक जीवन-महल की नीव है। सुरम्य प्रासाद, आलीशान भवन और आकाश से बातें करने वाले महल आख़िर किस पर टिके होते है ? नीव पर। यदि महल की नीव नही है या नींव कमजोर है तो प्रथम तो ऊँचा महल खड़ा ही नहीं हो सकता और यदि महल खड़ा कर भी दिया जाए तो कितने दिन टिकेगा? पास निकलने वालो की जान को भी और जोखिम ! तो जीवन में यदि विचार नहीं है, विवेक तथा भावना नहीं है, तो वह जीवन, मानव का जीवन नही कहला सकता, वह जीवन निरा पशु-जीवन है।

 शास्त्र में बताया है- प्राणी नरक में अत्यन्त दुखी रहता है, स्वर्ग में अत्यन्त मुखी। नरक की यंत्रणाओं और वेदनाओं में उसे कुछ विचार सूझता नहीं और स्वर्ग के सुखों में उसे विचार करने की फुर्सत नहीं। इस प्रकार स्वर्ग और नरक की योनियाँ तो

विचारशीलता की दृष्टि से शून्य है। तिर्यंच गति में प्राणी विवेकहीन रहता है- उसमें बुद्धि, भावना, विचार और विवेक जैसी योग्य शक्ति नहीं होती। फिर मनुष्य-योनि ही एक ऐसी योनि है, जिसमें विचार करने की क्षमता है, शक्ति है, विवेक व बुद्धि की स्फुरणा है, योग्यता है। इसलिए विचार मनुष्य की विशिष्ट सम्पत्ति है।

 सत्य-असत्य का, हित-अहित का परिशान होता है और उनसे आत्मा को विश्रान्ति-शान्ति मिलती है। कहा

विचार जब मन में बार-बार स्फुरित होने लगता है तब वह भावना का रूप धारण कर लेता है। नदी में जैसे लहर-पर-लहर उठने लगती है तो वे लहरे ए वेका रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार पुन. पुनः उठता हुआ विचार जब मन को अपमस्कारोंसे प्रभावित करता है तो वह भावना का रूप धारण कर लेता है। विचार पूर्व रूप है, भावना उत्तर रूप। वैसे सुनने में बोलचाल में विचार, भावना एव ध्यान समान अर्थ वाले शब्द प्रतीत होते है, किन्तु तीनों एक दूसरे के आगे-आगे बढने वाले चिन्तनात्मक सस्कार बनते जाते हैं, अतः तीनो के अर्थ में अन्तर है।

जीवन निर्माण में विचार का जो महत्त्व है, वह चिन्तन एवं भावना के रूप में ही है। बाइबिल में कहा है- ‘मनुष्य वैसा ही बन जाता है, जैसे उसके विचार होते हैं।’ ‘विचार ही आचार का निर्माण करते हैं, मनुष्य को बनाते है।

 चिन्तन-मनन ही भावना का रूप धारण करते हैं। भावना संस्कार बनती है, उससे जीवन का यह महत्त्वपूर्ण निर्माण होता है।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar