आज के मनुष्य की यह कैसी विडम्बना है कि उसे थोड़ा सा सम्मान मिलते ही वह पागल हो जाता है;; जरा-सा धन प्राप्त होते हो बेकाबू हो जाता है; साधारण-सा ज्ञानार्जन सीखते ही वह उपदेश की भाषा में बोलने लग जाता है और तनिक सा यश मिलते ही दुनिया का उपहास करने लग जाता है। यदि सुन्दर रूप मिल गया तो वह दर्पण को तोड़ डालता है। थोड़ा-सा अधिकार हासिल होते ही वह दूसरों को तबाह करने में लग जाता है। इस प्रकार तमाम उम्र यह मनुष्य चलनी से पानी भरने की प्रक्रिया करते हुए अपने आप को बड़ा महत्वपूर्ण समझता है।
मनुष्य की सभ्यता जितनी विकसित हुई है उतना ही मनुष्य जटिल, कठोर और अहंकारी बन गया। मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है फिर भी उसे ‘मैं कुछ हूँ’ का वहम् पैदा होता है। यह वहम् कहता है – मैं सारे संसार का केन्द्र हूँ, मेरे बिना दुनिया का कोई काम नहीं चलता, मैं ही सबका पालन-पोषण करता हूँ और मैं न रहूँ तो परिवार भूखा मर जायेगा परन्तु अभिमानी के सारे विचार व्यर्थ की कल्पनाएँ हैं।
किसी के बिना किसी का काम रुकता नहीं। सभी को अपने कर्मों के अनुसार सब कुछ मिलता है परन्तु व्यक्ति मान लेता है कि मैं ही सबके लिए सहारा हूँ। हर व्यक्ति यह सोचता है मानों सभी गीत उसी के लिए गाये जाते हैं; हवाएँ उसी के लिए बहती हैं;चंद्र-सूर्य भी उसी के लिए परिक्रमा करते हैं और आकाश के बादल भी उसी के खेत में बरसते हैं।
प्रकृति का यह महान आश्चर्य है कि सीपियों ने असंख्य मोतियों को जन्म दिया परन्तु वे कभी इठलायी नहीं; कीचड़ ने असंख्य कमल पैदा किए किन्तु गर्व से गर्दन को कभी ऊँचा नहीं उठाया। सिर्फ मनुष्य ही इस धरती पर ऐसा प्राणी है जिसका स्वर है- यानी मैं ही सब कुछ हूँ और इस दुनिया में जो भी हो रहा है उस पर मेरी पूरी मालकियत है।
इस दुनिया का सत्य यह है कि यहाँ कोई भी केन्द्र नहीं है। दुनिया चल रही है, उसी में हम चल रहे हैं।
इस अहंकार के बड़े रंग हैं और बड़े अनोखे रूप हैं। हर जगह वह अहंकारी भूल-चूक खोज ही लेता है।
महापुरुष अहंकारियों को चेतावनी देते हुए कहा है जब तक इस संसार रूपी समुद्र में हमारी जीवन-नैया है तब तक गर्व मत करो ।
अहंकार की परत जब तक तुम्हारे अंतस् में बनी रहेगी तब तक तुम्हें अपने से अतिरिक्त कोई नहीं दिखेगा। जीवन का लक्ष्य ‘मैं’ का प्रचार नहीं होना चाहिए।’