किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरिश्वरजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिश्वरजी म. सा. ने वैराग्य गुण अधिकार के तहत कहा कि शक्ति बिना तप नहीं होता, सत्व के बिना वैराग्य नहीं आ सकता। वैराग्य का फल तब मिलता है जब उसके भाव बनते हैं।
उन्होंने कहा धर्म करवाया नहीं, किया जाता है। ज्ञानी कहते हैं जागृति के काल में धर्म नहीं किया तो मृत्यु के काल में धर्म समझ में नहीं आएगा। दुर्जन अपने प्रवाह में दूसरों को भी खींच लेते हैं। जीवन का अंतिम सार यह है कि जिसके लिए पल-पल पापों का सेवन किया, अंतिम समय में इनमें से कुछ भी हमारे साथ आने वाला नहीं है। ऐसा ज्ञान आता है तो अपनी ओर से छोटा सा निमित्त पाकर भी कल्याण मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। ऐसा करने वाले स्वयंबुद्ध कहलाते है।हमने हमारे कर्मबंध कब, कितने किए, यह तो पता नहीं।
ज्ञानी कहते हैं यदि आपको वह याद रहे तो उसमें से कुछ कर्मबंध को तोड़ने के लिए सावधान हो जाएं। कर्म उदय में आने के पहले उनकी निर्जरा करने का उपाय कर लो। जो कर्म टाइम से उदय में आए तब तो रोना ही है। समझदारी तो इसमें है पहले ही उनको हंसते-हंसते काट लें। जैसे साधु की केशनलोच, विहार आदि प्रक्रियाएं कर्मों को खींच-खींच कर लाकर उनको काटने का कार्य करती है। उन्होंने बताया निद्रा तीन तरह की होती है भोगनिद्रा यानी निद्रा, शैथिल्य, योगनिद्रा यानी निद्राकाल में भी जागृति और आयुनिद्रा यानी जीवन की समाप्ति।
आचार्य भगवंत ने कहा साधुवेश का प्रभाव होता है कि क्रम से उदय में आने वाले पापों को वे पहले ही काट देते हैं। एक दिन रात्रि भोजन करने से असंख्य पापों का बंध हो जाता है, एक बार क्रोध करने से असंख्य पापबंध हो जाते हैं। ज्ञानी कहते हैं हम बहुत बार स्वयं का रज जितना सुकृत देखते हैं लेकिन पहाड़ जितना दुष्कृत्य नहीं देखते हैं। कर्मों को तोड़ना है तो अबाधा काल में निर्जरा कर लो। शाश्वत आनंद तब मिलता है जब देह स्तर पर आप परे होते हो। अपनी आत्मा के अंदर कर्मों की गर्मी बहुत रही हुई है, इस कारण वेदना अधिक है। ज्ञानी कहते हैं रोते-रोते कर्मों की निर्जरा की तुलना में हंसते-हंसते करने पर ज्यादा निर्जरा होती है। प्रसन्नता ही कर्म निर्जरा का श्रेष्ठ मार्ग है, उदासी या मायूसी नहीं।
ज्ञानियों ने निर्जरा की चार अवस्थाएं बताई है जघन्य निर्जरा यानी अकाम निर्जरा, मध्यम निर्जरा, उत्कृष्ट निर्जरा और शाश्वत निर्जरा। उन्होंने कहा प्राप्त देवगुरु की सामग्री का उपयोग करना शुरू करो। राग, द्वेष, मोह, वासना लाना बंद करो। शरीर के स्तर पर तप करना तपस्या है, मन के स्तर पर तप करना महातपस्या है। शरीर को तपाना बाह्य तप है, आत्मा को तपाना आभ्यंतर तप है। उन्होंने कहा सहन किए बिना सिद्धि नहीं होती। सम्यक ज्ञान होगा तो कर्मों की निर्जरा जल्दी होगी। ज्ञानी कहते हैं जीवन के अंदर कर्मों को बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दो। जीव हिंसा के साधनों का उपयोग, असत्य बोलने की आदत, देवगुरु की आशातना करने की आदत, चोरी और माया, इनसे अशाता वेदनीय कर्म का बंध होता है, इसलिए इन आशातनादि दोषों से दूर रहें।