*क्रमांक — 468*
. *कर्म-दर्शन*
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*🔹कर्मबंध में अध्यवसायों की भूमिका*
*👉 आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि एक अध्यवसाय है और एक चित्त है- चित्त की यात्रा शरीर से सम्बद्ध यात्रा है और अध्यवसाय तक की यात्रा शरीर से परे की यात्रा है। जब हम अध्यवसाय तक पहुँचते हैं तब हमारा संबंध शरीर से छूट जाता है। शरीर एक किनारा है और अध्यवसाय दूसरा किनारा है। ये दोनों भिन्न हैं। सब जीवों में मन नहीं होता है किन्तु अध्यवसाय सब जीवों में होता है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों में अध्यवसाय होते हैं। जिनके मन होता है उनके भी कर्म बंध होते हैं और जिनके मन नहीं है, उनके भी कर्म बंध होते हैं। सूत्रकृतांग में एक बहुत सुन्दर उदाहरण है कि एक मनुष्य जो रात में गाढ़ निद्रा में सोया हुआ है स्वप्न भी नहीं देख रहा है तथापि उसके भी कर्म बंध होता है। वे भी हिंसा के कर्म बंध हो रहे हैं। यदि मिथ्यात्वी है, अव्रती है, तो 18 पापों का सेवन करता है। निष्कर्षतः भाव बंध के अभाव में ही द्रव्य बंध रुक सकता है।*
*मन को हम बार-बार कोसते हैं कि यह चंचल है लेकिन आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि वह तो मात्र एक कर्मचारी है, दूत है जो निर्देशों का पालन करता है। संदेशवाहक की तरह अध्यवसाय और चित्त के द्वारा सौंपा गया कार्य का निर्वाह करता है। मन की भाषा लिपि की न होकर चित्र की होती है। लेकिन भाव की भाषा इससे भी सूक्ष्म है और वह रेखाओं की भाषा है। अध्यवसाय और सूक्ष्म होने के कारण उसकी भाषा कोरी तरंगों की होती है। इस प्रकार जीव अध्यवसायों के प्रति पूर्ण जागरूक रह कर कर्म बंध के मूल तक पहुँच सकते हैं।*
*क्रमशः ……….. आगे की पोस्ट से जानने का प्रयास करेंगे किन पुद्गलों का और कितने आत्मप्रदेशों से ग्रहण के बारे में।*
*✒️लिखने में कुछ गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।