नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में कहा कि 10 प्रकार की संज्ञा की परिभाषा भगवान ने किया। इन संज्ञाओ में संसार बढ़ाने का बहुत साम्थर्य है ये सभी जीवों में पायी जाती है। आहार संज्ञा की सभी जीवों में प्रधानता होती है।आहार के बिना शरीर का निर्माण नहीं होता। ये आहार जन्म से मरण तक निरन्तर चलता रहता है। ये संज्ञा का कभी विराम नही होता चारों आहार का त्याग होने पर भी रोम आहार निरन्तर चालू रहता है।
नारकी में खेती-बाड़ी कुछ नही होती फिर भी नारकी जीव मात्र रोम से आहार ग्रहण करते है और सागरोपम जीवित रहते ज़मीन से व्यक्ति जीवित रहते है। व्यक्ति ज्यादा भोजन ग्रहण करता है। तप में आहार त्याग करने से मृत्यु नहीं होती। बार बार भोजन ग्रहण करना गलत है क्योंकि बीमारियों की शान्ति तप से होती है न की औषधि से। यदि चारों आहार का प्याग कर धूप में बैठ जाओ तो शरीर के सभी रोग स्वतः ही शान्त हो जाते हैं। तिर्यंच भी जब तक शरीर में रोग शान्त नहीं होता तब तक भी आहार ग्रहण नहीं करते। शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है। जब शरीर में कमजोरी आती है तो दवाओं का सहयोग लेना पड़ता है अन्यथा शरीर सभी रोगों को पसीने व मूत्र के माध्यम से बाहर निकलता है ।
शरीर अनावश्यक चीजों को शरीर में जमा नही करता। तपस्या बीमारियों के लिए राम बाण है। यदि श्रद्धा रखी जाये तो फल अवश्य मिलता। हद से ज्यादा संग्रह करने से क्रोध, मान, माया, लोभ बढ़ता है। इसलिए भगवान कहते है ब्रहमचर्य का उत्कृष्ट पालन करना हो तो आहार संज्ञा वश में करो। क्रोध, मान आदि के अतिरिक्त चार संज्ञा ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप है जो संसार को घटाती है। ब्रहमचर्य की शक्ति से ही ज्ञान, दर्शन, तप व चारित्र होता है और तभी आध्यत्मिक साधना कर मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। मन का आहार वीर्य है जिससे मन को शक्ति मिलती है। मन के बल से ही ध्यान संभव है।
इसलिए हर धर्म में ब्रह्मचर्य को महत्व दिया है। भगवान कहते हैं कि ब्रहमचर्य का जीवन पर्यन्त पालन करो नही तो स्व स्त्री की मर्यादा करो। व्रतों को धारण कर पालन करने के लिए मन पर लगाम लगाने के लिए प्रतिदिन सामायिक करना आवश्यक है। जिससे मन, वचन, काया तीनों वश में होने का अभ्यास होता है इन तीनों को वश में करने से ही सामायिक सम्यग होती है। इस लिए 32 दोषो के सेवन से सामायिक में बचना चाहिए।