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आवश्यक क्रियाओं को जो छोड़ते हैं, वे धर्म से दूर होते जाते हैं – आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा.

आवश्यक क्रियाओं को जो छोड़ते हैं, वे धर्म से दूर होते जाते हैं – आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा.

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केसरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी महाराज ने प्रवचन में कहा कि आराधना को मोक्ष तक सक्रिय रखने के लिए छः आवश्यक निरंतर करना जरूरी है। उन्होंने कहा ज्ञान सुषुप्त होता है, उसको सक्रिय करने के लिए क्रिया आवश्यक है। आवश्यक क्रियाओं को छोड़ने वाले सांसारिक व्यक्ति से भी खराब कर्मी है। आवश्यक क्रिया परमात्मा का बताया हुआ मार्ग है।

ज्ञानी कहते हैं आप धर्मी की निंदा करते हो तो आपका सम्यक्त्व संदेह के घेरे में है। कषायों को सक्रिय नहीं करना प्रसन्नता है। उन्होंने कहा जगत में अच्छे लोग ही सबको अच्छे लगते हैं। पाप की दुनिया में भी ईमानदार लोगों को ही पसंद किया जाता हैं। उन्होंने कहा सारी प्रवृत्तियों में कहीं न कहीं भौतिक सुख छुपा हुआ है। अध्यात्म सुख का आनंद समकिती ही लेता है परंतु भौतिक सुख का आनंद भी समकिती ही ले सकता है। तृष्णा,अपेक्षा, भय और तुलना, ये चार सांसारिक सुख के बड़े शत्रु गिने जाते हैं। दान धर्म लोभ कषाय को दूर करता है और मन के विषय कषायों को शील धर्म दूर करता है। आहार संज्ञा के पाप को दूर करने का कार्य तप कराते हैं। दुर्भावों को दूर करने के का कार्य भाव कराते हैं। आवश्यक क्रियाओं को जो छोड़ते हैं, वे धर्म से दूर होते जाते हैं। संसार के मामलों में आप व्यवहार पूरा निभाते हैं लेकिन धर्म के मामलों में व्यवहार को क्यों छोड़ देते हैं? ऐसा नहीं करना चाहिए।

आचार्यश्री ने कहा आवश्यक क्रियाएं करने के अनेक फायदे होते हैं। गुरु वंदन करने से मान का विलय होता है, अभिमान टूटता है। इससे विनय का लाभ मिलता है। ज्ञान का क्षयोपक्षम शीघ्र होता है। सर्वविरतिधरों का संग मिलता है। संसार के विषयों में अरुचि जगती है। उन्होंने कहा शुभ कार्य को तुरंत शुरू करना चाहिए, भाव आने तक का इंतजार नहीं करना चाहिए। जीवन में कोई भी कार्य करो, उत्साह के साथ करो, उससे सफलता का रास्ता निकलेगा। पुण्य और पुण्यवान दोनों मिलते हैं तो संघ का पुण्य बीज के चांद की ओर जाता है। निष्पृहता गुणों का राजा है। जब तक जीवन में निष्पृहता नहीं आएगी, तब तक सच्चा सुख नहीं मिल सकेगा। प्रतिक्रमण को लेप औषधि कहा गया है। आत्मा के अतिचार को दूर करने का माध्यम प्रतिक्रमण है।

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