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आप अपनी मिली शक्तियों का जितना उपयोग करोगे, आत्मा उतनी ही प्रसन्न होगी- आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

आप अपनी मिली शक्तियों का जितना उपयोग करोगे, आत्मा उतनी ही प्रसन्न होगी- आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने देव- गुरु- धर्म अधिकार की विवेचना करते हुए कहा इस जगत में व्यक्ति के पास सारी वस्तुएं नाशवंत है। हमें नाशवंत से शाश्वत पाना है। संसार भ्रमण से मुक्ति की प्राप्ति शाश्वत है। हम धर्मक्रिया में बालक जैसे है क्योंकि अविधि, अज्ञान, आशातना हमारे अंदर हैं। इसलिए हमें धर्म गुरू की निश्रा में करना चाहिए। हम देव और गुरु की भक्ति इसलिए करते हैं क्योंकि इन तत्त्वों में धर्म रहा हुआ है। देव में धर्म, गुण, पुण्य रहा हुआ है।

वहीं, गुरु में सदाचार, वैराग्य, परोपकार का धर्म रहा हुआ है। देव, गुरु में धर्म आटोमेटिक आ जाता है।‌ हम देव, गुरु के प्रभाव से ही धर्म कर रहे हैं, ऐसा अहोभाव देव, गुरु के प्रति होना चाहिए। गुरु की निश्रा में किया हुआ धर्म संसार को घटाएगा।‌ ज्ञानी कहते हैं छःकाय की विराधना से बचने के लिए प्रभु ने हमें दान का मार्ग बताया है। उन्होंने कहा व्यक्ति 108 तरह से कषाय कर सकता है। माला के मोती भी 108 है इसलिए 108 का आंकड़ा मंगल गिना गया है। हमें 108 के आंकड़े से सहनशीलता, विशालता, मंगल दृष्टिकोण सीखना चाहिए क्योंकि 108 का आंकड़ा पंच परमेष्ठी के गुणों से आया है।‌

आचार्यश्री ने कहा पाप पहले मन के विचारों से शुरू होता है और आचरण तक खत्म होता है। विचार और आचार के बीच की प्रक्रिया समारंभ कहलाती है। सरम्भ, आरंभ और समारंभ ये तीन पाप की प्रक्रियाएं है। सरम्भ यानी पाप करने का विचार मन में आना। समारंभ यानी पाप की प्रक्रिया शुरू कर देना और आरंभ यानी पाप शुरू कर देना। ज्ञानी कहते हैं हम क्रोध-मान-माया-लोभ की प्रकृति कर्मबंध अभी भी कर रहे हैं। हमने नहीं भी किया है तो भी यह चालू है। ज्ञानी कहते हैं हर पल आप सुषुप्त रुप से मोहनीय कर्मबंध कर रहे हो।‌ कोई भी शुभ काम करने का तीव्र उत्साह न जगना, उसे वीर्यांतराय कर्म कहते है।

इसे टालने के लिए औरों को धर्म करवाते रहना चाहिए। इससे हमारे अंतराय टूटेंगे जरुर परंतु धर्म करने से जो लाभ होते हैं, वे अपनेआप में विशेष होते हैं जैसे कि सामायिक करने वालों को ही छःकाय जीवों की रक्षा का विशेष लाभ मिलता है। कराने या अनुमोदना करने से वह लाभ नहीं मिलता है। यदि आप परवश है, व्यवहार में मशगूल हैं, प्रमाद अथवा शक्ति का भी संजोग नहीं है तो ज्ञानी भगवंतों ने करावन और अनुमोदन करने का मार्ग प्रशस्त किया है। शास्त्रों में कहा गया है कि श्रावकों का काम सुपात्रदान करने का है, साधु सुपात्रदान ले सकता हैं और अनुमोदना कोई भी कर सकता है।

उन्होंने कहा साधु भी दूसरे साधु को वहोराकर सुपात्रदान कर सकते हैं। भूखा रहकर सुपात्रदान करना, उसमें लाभ ज्यादा मिलता है, उसका अलग ही आनंद है। यदि आप ऐसा करते हैं तो वह जीवन में अविस्मरणीय रहेगा। परमात्मा का शासन उदार है। उन्होंने कहा त्याग का आनंद सात्विक आनंद है और भोग का आनंद तामसिक आनंद है। दानधर्म पापस्थानकों को हल्का बनाता है, तपधर्म शरीर की वासना को हल्का करता है और भावधर्म अपने दुर्ध्यान को हल्का करता है। जब तक हृदय में विरति की भावना नहीं आएगी तब तक पापों का विराम नहीं आएगा। आप अपनी मिली शक्तियों का जितना उपयोग करोगे, आत्मा उतनी ही प्रसन्न होगी।

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