स्थल: श्री राजेन्द्र भवन चेन्नई
विश्व वंदनीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न राष्ट्रसंत, उग्र विहारी श्रीमद् विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा. के प्रवचन के अंश
🪔 *विषय : अभिधान राजेंद्र कोष भाग 7*🪔
~ हमारा जीवन परमात्मा के ऐश्वर्य को देखकर स्वयं के ऐश्वर्य को प्रकट करने के लिए ही है।
~ भक्त को यदि भक्ति की योग्य जानकारी (ज्ञान) और स्वयं की श्रेष्ठ योग्यता यदि है तो भक्ति का बल अवश्य भक्त को मिलता है।
~ भक्त यदि प्रभु को सम्यक् रूप से पहचानता है तो ही प्रभु को मन, वचन, काया का पूर्ण समर्पण करने के लिए पराक्रम प्रकट कर सकता है, और करता ही है।
~ आत्मा का मिलन वह अनंत ज्ञान का हिस्सा है और भीतर की यात्रा स्वयं की सम्यक् ज्ञान दशा से ही प्रारंभ होती है।
~ जब प्रभु का मिलन होता है तभी सम्यक् जागृति, सत्यबोध प्रकट होगा।
~ आत्मा की शुद्धि ही धर्म का परम शिखर है।
~ जो परम तत्व है उससे ही मुझे जुड़ना है और प्रभु का मिलन ही श्रेष्ठ पल है।
~ क्रिया करने के बाद दोषों का मूलभूत क्षय हो और गुण प्रकट हुए तो ही हमारी की हुई धर्म की क्रिया वह धर्म और प्रभु की कृपा समझना चाहिए।
~ परम धर्म प्रतिपल फल देने वाला, गति वाला, वर्धमान (बढ़नेवाला) है ही।
~ यह मानवभव परम अवसर है कि हम हमारी चेतना का अनुभव कर सके अब हम पराक्रम नहीं करेंगे तो स्वयं की चेतना का अनुभव कब, कौन से भव में होगा?
~ क्रिया का धर्म यदि निश्चय में ना ले जाए, आंतरिक परिवर्तन ना आए तो वह भ्रम है।
~ धर्म करने के बाद यदि उसमें 100% इंवॉल्वमेंट हो तो ही कर्म, दोष, पापों का क्षय होता है और आत्मा की अनंत शक्ति को प्रकट करता ही है।
~ रावण महाराजा के जीवन में संसार का राग, सीता का राग, पाप, दोषों का रंग, प्रभु की भक्ति के रंग में के सामने अत्यंत तुच्छ था।
*”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*
🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪