किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी ने प्रवचन में कहा कि योग साधना की शुरुआत आत्मनिरीक्षण से होती है। योगी बनना है तो श्रद्धालु, जिज्ञासु बनना पड़ेगा। शास्त्र में छिपे अध्यात्म को ग्रहण करना होगा। आत्मकल्याण करने के लिए जिज्ञासु बनना जरूरी है। पात्रता वाली आत्मा को तो आदेश हो जाता है, तब यह समझना यह उनका सौभाग्य है। उन्होंने कहा कि अनादिकाल से हमारे अंदर मोहराजा ने अवगुणों को भर दिया है। अवगुणों को दूर करने पर ही हमारा कल्याण हो सकता है। आपको स्वयं को सुधारे बिना आत्मकल्याण संभव नहीं है। गुजराती में कहावत है ‘जग में भुंडो कोई नहीं, भुंडो मारो जीव। जा रे ए सुधरिया से, प्यारे मलशे शिव।’ जब हम यह सोच लेंगे सबसे खराब मैं ही हूं, मेरा जीव है, उस दिन आत्मा परमात्मा बनने की ओर अग्रसर हो जाएगी। यदि हमने बीज गलत बोया है तो यह दयनीय स्थिति है।
उन्होंने कहा कि दृढ़ विश्वास जिसके पास है तो श्रद्धा के कारण मन में संदेह उत्पन्न नहीं होता। पूर्व में जिसने धर्म प्राप्त नहीं किया लेकिन योग साधना की तो उसके प्रभाव से मोक्ष मिला। अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम मोक्ष में जाने वाली मरुदेवी माता है। उन्होंने जीवन में धर्म प्राप्त नहीं किया क्योंकि उस समय धर्म की स्थापना नहीं हुई। लेकिन योग के प्रभाव से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्होंने कहा कि योग साधना का मार्ग कठिन बनने का कारण यह है कि हम आत्मनिरीक्षण नहीं कर पाते। यदि आपमें विवेक है तो दोष भी गुण बन जाता है। हमें दूसरों के गुणों को देखकर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। दूसरों के गुणों की अनुमोदना करनी चाहिए और अपने अवगुणों को दूर करना चाहिए। दूसरों के गुण सुनना, स्वदोष प्रकट करना, इन दोनों चीजों को जीवन में लाने के लिए जिनवाणी का श्रवण करने से जीवन में सरलता आ जाएगी। उन्होंने कहा कि योगी बनना है तो वैयावच्ची बनना होगा। वैयावच्च, सेवा का अवसर सौभाग्य से मिलता है। हमें भरत राजा के जैसा वैयावच्च का गुण धारण करना चाहिए। पूर्व भव में पांच सौ साधुओं की वैयावच्च, सेवा के अप्रतिपाति गुण के कारण भरत महाराजा को चक्रवर्ती पद मिला।