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अपनी आराधना ऐसी होनी चाहिए कि दूसरों को प्रेरणा मिले: गणिवर्य समर्पणप्रभ विजय

अपनी आराधना ऐसी होनी चाहिए कि दूसरों को प्रेरणा मिले: गणिवर्य समर्पणप्रभ विजय

किलपॉक श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सुरीश्वरजी के शिष्य गणिवर्य समर्पणप्रभ विजयजी ने ‘ओघ निर्युक्ति’ ग्रंथ की विवेचना करते हुए में कहा कि इस आगम में महापुरुषों साधु- साध्वी, श्रावक, श्राविका के जीवन की आचार संहिता का वर्णन है। आगम के प्रमुख चार ग्रंथ है आवश्यक सूत्र, अनुयोग, उत्तराध्ययन सूत्र और ओघ निर्युक्ति। ओघ निर्युक्ति ग्रंथ में सात द्वार बताए गए हैं प्रतिलेखना द्वार यानी वस्तु, पात्र प्रतिलेखन, पडिलेहन विधि आदि, पिंड द्वार यानी साधु के आहार चर्या का वर्णन, उपधि द्वार यानी उपकरण आदि की जयणा का वर्णन, अनायतन द्वार यानी साधु के ठहरने की जगह और जीवों की हिंसा से बचने का लक्ष्य, प्रतिसेवन, आलोचना और आलोचना पूर्ण करना यानी आलोचना लेनी ही नहीं, पूर्ण करनी है। इससे आत्मा के मलिन संस्कार दूर होते हैं। शास्त्र विधान में बताया गया है कि साधु का विहार नौकल्पी विहार होना चाहिए। गुरु भगवंत कष्ट होने पर भी जीवदया का पूर्ण पालन करते हैं।

उन्होंने कहा मुहपत्ति पडिलेहन के पीछे हीलिंग रही हुई है। इससे हमारे अंदर रहे हुए कषायों का विसर्जन हो रहा है, ऐसा सोचना। उन्होंने कहा अपनी आराधना ऐसी होनी चाहिए कि दूसरों को प्रेरणा मिले। साधु जीवन और श्रावक जीवन में यह अंतर है कि साधु के पास कोई सामग्री नहीं है, फिर भी उनमें उत्तमोत्तम सुख रहा हुआ है। उनके मन में हर रोज बार- बार शुभ भावों का आगमन होता रहता है। संसारी जीव के मन में सामग्री पाने की लालसा और अज्ञानता रहती है। साधु का तो केवल एक लक्ष्य होता है गुणों की प्राप्ति व मोक्ष की प्राप्ति। संसारी व्यक्ति भी अपनी साधना से उच्च कोटि के श्रावक तो बन ही सकते हैं। सच्चा श्रावक वह है जो यह सद्भावना रखे कि मैं भी एक दिन साधु बनूं, इसलिए श्रावक को श्रमणोपासक कहा गया है। गणिवर्य ने कहा कि दुःख नाम की कोई चीज संसार में है ही नहीं। यह एक कल्पना मात्र है। संसारी व्यक्ति ममत्व पैदा करता है। वास्तव में दुःख को खड़ा किया गया है। जो अपेक्षा, चिंता पूरी होने वाली नहीं हो तो वह क्यों लेना? जीवन में हमें निश्चिंत बन जाना चाहिए, वही परम सुख है। जीवन में आध्यात्मिक विकास करना है, उत्तम श्रावक बनना है तो गुरु का सान्निध्य जरूरी है। हमें दैनिक चर्या में छोटी-छोटी चीजों में जयणा का पालन करना चाहिए, इससे धीरे-धीरे उत्तम कक्षा में पहुंच जाओगे। छोटा सा नियम जीवन को बदल देता है। नियम और नियंत्रण से अलंकृत कर जीवन को उत्तम बनाना है।

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