किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने आचारांग सूत्र के तहत कहा कि आत्मा आत्मा में कोई फर्क नहीं है, चाहे वह एकेंद्रिय, बेइंद्रिय या पंचेेंद्रिय की हो। चींटी को तीन इंद्रिय है। चींटी को जन्म से ही नहीं दिखता लेकिन वह आहार वासना के लिए गंध के आधार पर अपनी गति बनाती है। कुछ इंद्रियां काम नहीं करती लेकिन जीव के संस्कारों से वह महसूस करते हैं।
व्यक्ति को सपने आने के समय पांचो इंद्रियां सुषुप्त अवस्था में होती है लेकिन फिर भी हम शब्द, रुप, गंध को महसूस करते हैं। चींटी देखती नहीं, फिर भी चलती- सुनती है और मक्खी सुनती नहीं, फिर भी महसूस करती है। यह आत्मा में रही हुई संज्ञा द्वारा होता है। ज्ञानी कहते हैं हर जीवात्मा के पास चार संज्ञा रही हुई है। छोटे जीवों में भी माया संज्ञा होती है, चाहे वह बेइंद्रिय हो या तेइंद्रिय। जीवात्मा एकेंद्रिय, बेइंद्रिय हो तो भी कभी कभार संज्ञा से पंचेेंद्रीय जैसा पाप कर सकता है।
आचार्यश्री ने आचारांग सूत्र के अंतर्गत लोकविजय का विश्लेषण करते हुए कहा लोकविजय यानी चौदह राजलोक में अपना जो अस्तित्व है, उसका अभिमान नहीं करना। दूसरा अर्थ है इंद्रियां लोक और तीसरा है अपना मन रूपी राजलोक। तीनों में मन रूपी राजलोक सबसे ज्यादा परेशान करता है। ज्ञानी कहते हैं जगत में सबसे अच्छी चीज अच्छी सोच है।
अच्छी सोच को सुनने वाले कम होते हैं, दिमाग में रखने वाले उससे भी कम और उसको टिकाने वाले उससे भी कम होते हैं। ज्ञानी कहते हैं जो वस्तु, परिणाम दु:खकारी हो वहां सुख की बुद्धि रोक दो। लालच सुख का आभास है लेकिन दुःखी ही करता है। उन्होंने कहा जगत के सारे लोग सुख को समझ नहीं पा रहे हैं। भौतिक कामनाएं दुःख का कारण बनती है। ज्ञानी कहते हैं जो व्यक्ति भोजन, शरीर आदि में सुख मानता है वह अज्ञान है क्यूंकि ये भोजन वगैरह तो एक व्यवस्था मात्र है, इसमें सुख क्या? हमने माने हुए भौतिक सुख भी अंत में दुःख ही देते हैं और दिखता हुआ साधु का कष्टमय जीवन अंत में शास्वत सुख देते हैं।
आचार्य प्रवर ने कहा कोई व्यवस्था को सुख मानता है तो वह दुख का प्रतिकार है। जिस तरह सिग्नल के बिना गाड़ी नहीं चलती, सिग्नल तो मात्र एक व्यवस्था है। ज्ञानी कहते हैं सुख वर्तमान में है ही नहीं, केवल व्यवस्था है, सुख तो लंबे काल तक अनवरत चलता है। व्यवस्था को सुख मान लेना अज्ञानता है।
अपनी अपेक्षा पूर्ण होती है तो उससे संसारी खुश होता है। साधु की अपेक्षा पूर्ण न हो तो वह उसे कर्मनिर्जरा मानते हैं। इसका कारण एक ही है, साधु ने लोकविजय करने का प्रयास किया है। ज्ञानी कहते हैं आपकी चाॅइस जितनी ज्यादा होगी, कषाय उतने ही ज्यादा होंगे। जीना कितना है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, जीना कैसे हैं, वह महत्वपूर्ण है। बहुत बार आयुष्य लंबे होते हैं, पर वेदना भी अधिक होती है। ज्ञानी कहते हैं आपने कितना जीया है, उससे इतिहास नहीं बनेगा, आपने कैसे जीया है, उससे इतिहास बनेगा। आपने कितना संग्रह किया, इससे नहीं बल्कि इतिहास तो ‘दान’ से बनता है।
उन्होंने कहा सुख नहीं मिलेगा तो चलेगा, सुकृत छूटना नहीं चाहिए। दुःख मिलेगा तो चलेगा लेकिन दोषों को दूर रखना चाहिए। उन्होंने कहा नियम, तप, त्याग में परम सुख है। भौतिक बातों में सुख समझना, वही अज्ञानता है। जितने ज्यादा भौतिक सुख लेने जाओगे, उतनी ही विराधना ज्यादा करनी पड़ेगी। सुख नहीं देने वाली चीजों में भी सुख का आभास करना, संसारी की आदत है। मन, इंद्रियों व विश्व का विजेता बनो। नियम, तप, त्याग में सुख मानना शुरू करो। मृत्यु पर विश्वास मत करो। मृत्यु की तैयारी हमेशा रखो।