यहां शांति भवन में गुरुवार को ज्ञानमुनि के सान्निध्य में पर्वाधिराज पर्यूषण महापर्व का अंतिम दिन सांवत्सरिक दिवस के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर ज्ञानमुनि ने कहा कि पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व का सबसे महत्वपूर्ण दिन सांवत्सरिक पर्व है। यह पर्व आत्मा का पर्व है, परमात्मा का पर्व है। शरीर का ममत्व छोडऩे एवं लालसा छोडऩे का दिन है। दूसरा और कोई पर्व आने पर लोग धन सहित अन्य विलासी चीजें मांगते हैं लेकिन संवत्सरी पर्व में भगवान से आत्म कल्याण मांगा जाता है। संसार में दो तरह के प्राणी हैं, मुमुक्षु एवं बुबूक्षू। बुबूक्षु वाले सिर्फ खाऊ-खाऊ करते हैं, भोग में विश्वास रखते हैं लेकिन मुमुक्षु छोडऩे में विश्वास करते हैं। त्याग करते हैं। परमात्मा के नजदीक जाने का दिन है संवत्सरिक पर्व। जैन धर्म में क्षमा को मित्रता का आधार माना गया है, इस लिए पर्यूषण पर्व को क्षमा या मैत्री के पर्व के रूप में भी मनाया जात...
वेलूर के शांति भवन में विराजित श्री ज्ञानमुनिजी ने दिगवंत आचार्य श्री शुभचंद्रजी म.सा को भाव भीनी श्रद्धाजंली अर्पित करने के बाद कहे कि आचार्य श्री शुभचंद्रजी महाराज वयोवृद्ध अनुभवी सरलमना दीर्घ तपस्वी महान सेवा भावी पुरानी पीढ़ी के महान संत के निधन से जैन संघ की अत्यंत क्षति पूर्ति हुई जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में असंभव है। आचार्य श्री सदा प्रसन्न मुख सब के प्रति वात्सल्य से ओत पोत व्यक्तित्व के धनी थे। इसी कारण सभी सम्प्रदाय के संत उनसे मिलना चाहते थे,उनसे मिलते थे और मिलकर अत्यंत प्रसन्नता का धन्य भाग्य अनुभव करते थे। ऐसे विरल व्यक्तित्व के धनी आचार्य श्री को श्री ज्ञानमुनिजी सहित काफी संख्या में श्रावक व श्राविकाएं भाव भीनी श्रद्धाजंली अर्पित किये। फिर धर्मसभा को संबोधित करते हुए श्री ज्ञानमुनि ने कहे कि धर्म चार प्रकार के होते है-दान,शील,तप व धर्म है। मानव जीवन में सयमं अति अवश्यक...
यहां शांति भवन में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा कि साधुओं की न कोई आशा है न निराशा है। कभी जिंदगी में भी चुभता वचन नही बोलते हैं। जीवन में तन का ढ़ंग, जन का ढ़ंग एवं इंसान का क्या ढ़ंग है ये भगवान व गुरु बताते हैं। जिसके जीवन में कषाय शांत है वो ही साधु। कषाय का मतलब लोभ, क्रोध,मोह, माया का नियंत्रण करना। जिसके रोम रोम में दया व करुणा भरी होती है। जो लेते एक है लेकिन देते दो हैं वो साधु है। साधु के एक शब्द में अर्थ छिपा हुआ है। भगवान का एक वचन भी जीवन में बहुत बड़ी बात है। मानव शुभ कार्य करने में कभी देरी न करें क्योंकि सांय तक कब क्या होगा वो कोई नहीं जानता है।
आरकाट के जैन स्थानक में विराजित साध्वी मंयकमणि ने कहा कि तीर्थंकर व अरिहंत मंगल रूप होते हैं। मंगल की शरण लेने पर अमंगल भी मंगल हो जाता है। अगर मंगल की शरण नहीं लेते है तो जीवन के जो मंगल है वे भी अमंगल बन जाते है इसलिए अरिहंतों के शरण लेना बहुत जरूरी है क्योंकि ये मंगल हैं और लोक के लिए उत्तम हैं। हम उस व्यक्ति की शरण चाहते या लेते हैं जो स्वयं किसी अन्य की शरण ले रहा है। हम उस निर्भर रहते हैं जो स्वयं दूसरों पर निर्भर है। हम उनसे सहयोग लेते हैं जो खुद ही दूसरों का सहयोग रहे होते हैं।
यहां बेरी बक्काली स्ट्रीट स्थित शांति भवन में विराजित ज्ञानमुनि ने पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व के शुभारंभ पर कहा कि इंसान अपने जीवन में आनन्द, बोध एवं प्रसन्नता चाहता है इसलिए इंसान की प्रसन्नता को देखते हुए समय समय पर पर्वो का आयोजन किया जाता है। मानव को महोत्सव अच्छा लगता है, पर्वो से इनके तनाव की दशा ठीक हो जाती है। मानसिक तनाव को दूर करने के लिए ही पर्व मनाते हैं। कुछ पर्व ऐसे हैं जिससे मनुष्य आलौकिक आराधना करने हैं। भौतिकता से हटकर धर्म की ओर चलते हैं। अज्ञान से हटकर ज्ञान की मार्ग पर चलने का समय ही है ये पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व है। जो आठ दिन मनाया जाता है। इन आठ कर्मो से ही आत्मा व परमात्मा का भेद होता है। मनुष्यों को ये आठ दिन आत्मा के शुद्धि करने व सारे कर्मो को धोने के प्रयास करना चाहिए। पर्यूषण पर्व आत्मा का संदेश लेकर आता है। ये 12 महिने की जमी हुई धुल को मिटाने का समय है। अपने आप क...
यहां शांति भवन में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा हमारे मन में हमेशा उठने वाली इच्छाओं और अनिच्छाओं व वृत्तियों में हम विवेक शून्य होकर शिखर की ओर बढऩे की मंजिल को पाने की बात तो दुर कभी उस मार्ग पर जाने के बारे में सोचा भी नहीं। कभी अपने आत्मा को समझने का प्रयास नहीं किया। जिसके हृदय में प्रेम, वात्सल्य है व आत्मा को जानने की उत्सुकता है एवं जिसके जीवन में सदाचार व सदगुणों भरे हैं वही स्वयं को विकास के शिखर पर पहुंचा सकता है। मन ही हमारे पतन व उत्थान की कुंजी है। मन से ही स्वर्ग व नरक मिल सकता है। मानव के संयम में पुरुषार्थ नहीं करने के मुख्य कारण हैं, धनलिप्सा, सत्ता की महत्वकांक्षा, विलासिता, अविश्वास व सुसंस्कारों का अभाव। संयम का फल होता है जबकि मोक्ष से अनंत सुख मिलता है। संयम के प्रभाव से अपवित्र व्यक्ति भी पवित्र हो जाता है एवं सेवक भी स्वामी व पतित भी पावन बन जाता है।
यहां शांति भवन में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा संसार के ज्यादातर प्राणी मोह-माया में फंसे हैं जो कि दुख का मूल कारण है। इस संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है जो हमारी है। ये सभी ठाट-बाट की सामग्री यहीं रह जाएगी। जीव पास है तो सब अपने हैं चला गया तो कोई अपना नहीं। सारी मोह-माया भी उसी के साथ चली जाती है। जीव सब कुछ छोड़ अकेला ही चला जाता है पाप का बोझ लेकर। कहावत है कि जीते को रोटी नही मरने बाद रसोई करते हैं। आज के युग में सात पुत्र होने के बावजूद वृद्ध मां को अपने रोटी पकाकर खानी पड़ती है। सातों को अकेली पालने वाली माता को सातों मिलकर नहीं पाल सकते। ये कैसा कलियुग है। बेचारे वृद्ध मांं-बाप भार लगते हैं। जब उनके पास धन दौलत थी सब पूछते थे, धन समाप्त हुआ तो पूछ खत्म हो गई। जीवन में फलना हो तो माता-पिता का आशीर्वाद लें बद्दुआ नहीं। पहले के अनपढ़ भी अनुभवी होते थे, आजकल के पढ़े-लिखे अनपढ़ हैं।
वेलूर शांति भवन में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा संतों की सेवा करो तो ठीक न करो तो भी ठीक, लेकिन उनकी बददुआ नहीं लेनी चाहिए। सती, गरीब, बालक व संत की हाय जल्द लगती है। गरीब की बुरी शीष लगने से करोड़पति भी सडक़ पर आ जाता है। मनुष्यों को आठ कामों में धैर्य रखना चाहिए। जैसे स्नान, प्रश्र अगर किसी संत से प्रश्न पूछते हो तो उनके जवाब देने तक धैर्य रखना चाहिए क्योंकि तभी उस प्रश्न का जवाब सही मिलेगा। तीसरा गायन अगर भगवान की भजन गा रहे हो तो जल्दबाजी या हड़बड़ाकर नही गाना है, शांति से गाना चाहिए। इसी तरह समभाषण, श्रृंगार, मान, दान, सत्कार जैसे कार्यो में आतुरता नहीं दिखानी चाहिए। मनुष्य का जीवन शक्ति, ऊर्जा से भरा होता है अगर वह इसका प्रयोग अच्छाई में करे तो उसके जीवन में कभी निराशा नहीं आएगी। उन्होंने कहा कि ज्ञानियों, वृद्धों एवं अनुभवी लोगों को सेवा व नमन करने से वह प्रसन्न व प्रफुल्लित होकर सामने ...
यहंा बेरी बेक्काली स्ट्रीट स्थित शांति भवन में ज्ञानमुनि ने कहा आत्मा के कर्मों को नष्ट करने या मिटाने पर ही मोक्ष संभव है। ये कर्म ही संसार में भटकाव का मूल कारण है और यही बाधा रूप है। अनुकूल कर्म सुख की अनुभूति करवाते हैं जबकि प्रतिकूल कर्म दुख का कारण बनते हैं। हालाकि दोनों ही बंधन रूप हैं। मोह कर्म सबसे भयंकर है। यह अच्छी-अच्छी आत्माओं को भटका देते हैं। यह मोह कर्म आठ कर्मों का राजा है। उसे जीतना एवं नष्ट करने पर सारे कर्म धीरे-धीरे क्षीण होते चले जाते हैं। जिसने मोह को जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया। अभिमान और स्वाभिमान दोनों अलग-अलग होते हैं। अभिमान में घमंड होता है जबकि स्वाभिमान में गौरव। हारने वाला मुंह नहीं दिखाता और जीतने वाले के लिए ढ़ोल बजते हैं। परिवार के बंधन के कारण व्यक्ति बंधन में पड़ा रहता है।