आरकाट के श्री एसएस जैन स्थानक भवन में विराजित साध्वी श्री मंयकमणिजी ने कहा कि आत्महित में सहायक बनने वाले प्रभु वचनों का श्रवण दुर्लभ है। प्रभु वचन पाप से बचाती है,और संस्कार,सद्गति,सदगुण भी प्रभु वचनों से प्रापत होती है। लोगों को श्रवण के बाद उन वचनों को मनन में लेना चाहिए। यही नहीं मनन चिंतन करके मन के कुसंस्कारों के दमन करना और आत्म हित के लिए शुभ भावों को अर्जित करना चाहिए जो प्रभु वचनों से ही सुलभ है। चातुर्मास का लक्ष्य है परमात्मा की शरणागति में जाना। परमात्मा का प्यार पाना है। सदाचारिता,कर्तव्य परायणता,परलोकचिंता, पुण्यश्रद्धा में पवित्रता लानी है। इन पांच गुण से हम प्रभु का प्यार पा सकते हैं।
आरकाट के जैन स्थानक में विराजित साध्वी मंयकमणि ने कहा कि तीर्थंकर व अरिहंत मंगल रूप होते हैं। मंगल की शरण लेने पर अमंगल भी मंगल हो जाता है। अगर मंगल की शरण नहीं लेते है तो जीवन के जो मंगल है वे भी अमंगल बन जाते है इसलिए अरिहंतों के शरण लेना बहुत जरूरी है क्योंकि ये मंगल हैं और लोक के लिए उत्तम हैं। हम उस व्यक्ति की शरण चाहते या लेते हैं जो स्वयं किसी अन्य की शरण ले रहा है। हम उस निर्भर रहते हैं जो स्वयं दूसरों पर निर्भर है। हम उनसे सहयोग लेते हैं जो खुद ही दूसरों का सहयोग रहे होते हैं।
यहां जैन स्थानक में विराजित साध्वी मयंकमणि ने कहा वाणी संयम, मौन एवं मित भाषण जीवन दर्शन का मौलिक सूत्र है। मौन सर्वोत्तम भाषण है यदि बोलना ही है तो कम बोलो। एक शब्द में काम चल जाए तो दो मत बोलो। असत्य का प्रयोग वाणी से होता है। मौन रहेंगे तो वाणी असत्य से दूषित नहीं होगी। भारत के बड़े-बड़े योगी, ऋषि, ज्ञानी एवं महात्मा मौन साधना में लीन रहते थे। मौन के मूल में संयम होना चाहिए। डर या अज्ञान के कारण मौन रहना मुनित्व नहीं हो सकता। एक विचारक ने कहा है कि मद से उत्पन्न मौन पशुता है और संयम से उत्पन्न साधुता। मुनि मौन रहे या बोले लेकिन उसका लक्ष्य होना चाहिए। कठोर भाषा भी बहुत से प्राणियों का नाश करने वाली होती है। अत: ऐसी भाषा सत्य हो तो भी साधु को नही बोलनी चाहिए क्योंकि इससे पाप कर्म का बंध होता है।