चेन्नई. पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में विराजित आचार्य सौ यदर्शन ने कहा नमस्कार मंत्र के दूसरे पद में सिद्ध भगवान का नमन किया जाता है। जिन्होंने अपने जीवन को साध लिया एवं सभी कार्य पूर्ण हो गए वही सिद्ध कहलाते हैं। आठ कर्मों कर क्षय कर अनंत ज्ञान, दर्शन, चरित्र, सुख, क्षायिक समकित, अटल अवगाहना, अलघु गुरु, अमूर्ति और अनंत अकरण वीर्य को भीतर से प्रकट कर मोक्ष में विराजित है। सिद्ध का रंग लाल होता है जो क्रांति का प्रतीक है। भीतर की क्रांति से कर्म शत्रुओं का नाश कर सिद्ध अवस्था प्राप्त करना ही इस रंग का संदेश है। सिद्धात्मा लोक के अग्रभाग में विराजित है। मुनि दिव्यदर्शन ने कहा संसार में स्वयं के नाम से पहचान बनाने वाले उत्तम पुरुष, मामा के नाम से लोग जिनको जानते हों वे अधम पुरुष और जिसकी ससुर के नाम से पहचान बनती है वह अधमाधम पुरुष है। पिता की कमाई पर बेटा अभिमान करे तो कोई बड़ी बात नहीं बल्कि...
चेन्नई. ट्टाभिराम जैन स्थानक में विराजित साध्वी प्रतिभाश्री ने कहा नवपद मंत्र अंतरात्माओं के मार्ग में मील के पत्थर का काम करता है। जिस प्रकार पथिक को मील का पत्थर मार्ग का परिज्ञान कराता है उसे मार्ग तय करने का विश्वास दिलाता है। उसी प्रकार नमस्कार महामंत्र अंतरात्मा को साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहंत और सिद्ध रूप गंतव्य पर पहुंचने का मार्ग दिखाता है अर्थात चारित्र तप प्राप्त करता है। शुद्ध और स्थिर चित्त से इसका ध्यान करने पर विपत्ति, भय और उपसर्ग से रक्षा होती है। यह कवच की भांति रक्षा करता है। आरोग्य, सुख और समृद्धि में वृद्धि करता है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति का अधिकारी बनता है। नवपद के जाप एवं आराधना से पाप नष्ट होते हैं व कर्मनिर्जरा होती है और बुद्धि का आध्यात्मिक विकास होता है। संचालन आनंदकुमार चुतर ने किया।
साहुकारपेट स्थित जैन आराधना भवन में विराजित गणिवर्य पदमचन्द्रसागर ने नवपद ओली पर प्रकाश डालते हुए बताया कि सिद्धचक्र एक अमोघ चक्र है जो कर्मनाशक है। इसके केंद्र में अरिहंत भगवान है, जो देशना देते हंै, मार्गदर्शक है और मोक्ष का मार्ग बताते हैं। अरिहंत भगवंतों के आठ प्रातिहार्य होते हैं- अशोक वृक्ष, पुष्पवृष्टि, देव दुन्दुभि, दोनों तरफ चामर, सिंहासन, प्रभामंडल, दिव्य ध्वनि और समवसरण। वे 35 गुणयुत वाणी से युक्त होते हैं। उनके 34 अतिशय होते हैं, उनकी अनंत ऋद्धि होती है. अरिहंत बनने के लिए मानव को कम से कम 3 भव तो लेने ही पड़ते हैं। अरिहंत भगवंत परमार्थी-परार्थी हैं। हम साधारण मानव स्वयं के लिए वीशस्थानक तप करते हैं, लेकिन अरिहंत परमात्मा सवी जीव के लिए तप आदि करते हैं। स यग दर्शन पाई हुई आत्मा या तो स्वयं का कल्याण करती है या परिवार का कल्याण करती है और उत्कृष्ट से सब जीवों का कल्याण करती है।
चेन्नई. नवपद में सब कुछ है लेकिन हम इधर-उधर दौड़ते रहते हैं। नवकार पर श्रद्धा नहीं करते। व्यक्ति स्वार्थ एवं इच्छाओं की पूर्ति के लिए भटकता रहता है लेकिन यह नवकार तो इच्छाओं का ही नाश कर देता है और आत्मा से परमात्मा बना देता है। परमात्मा से मांगें जरूर लेकिन अपने लिए नहीं सबके लिए खुशी और सुख मांगें। आप स्वत: ही सुखी हो जाएंगे। मुनि ने कहा हम मांगते ही रहते हैं मांगने की आदत हो गई है। सब कुछ मिल जाए फिर भी तो नई-नई इच्छा करके मांगते हैं और यही दुख का कारण है। धर्म करें कंकर से शंकर एवं गरीब से अमीर बन जाएंगे। धर्म हमेशा फल देने वाला है। सबको छोड़कर केवल चिंतामणि मंत्र नवकार मंत्र का ध्यान करें, इसमें अरिहंत, सिंह, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ये पांचों सारे पापों का नाश एवं मंगल करने एवं सारे कर्मों को नष्ट करने वाले हैं। इसलिए इनकी शरण में जाएं एवं आराधना करें। ये ही भवपार उतारने वाला हैं। इस ...
चेन्नई, साहुकारपेट स्थित श्री जैन भवन में विराजित उपाध्याय प्रवर रवीन्द्र मुनि ने कहा बोलने से भी व्यक्ति की ऊर्जा खर्च होती है। जैसे व्यक्ति काम करके थक जाता है वैसे ही बोलने से भी उसकी ऊर्जा घट जाती है। मनुष्य बोलना तो तीन साल से ही सीखता है लेकिन क्या बोलना है जीवन भर नहीं सीख पाता। जैसे बोलना जरूरी होता है वैसे ही मौन रहना भी जरूरी है। यदि बोलते ही जाएगा तो ऊर्जा तो खर्च होगी ही। यदि यही रवैया रहा तो धीरे धीरे ऊर्जा का यह खजाना भी खत्म हो जाएगा। आदमी को क्या एवं कितना बोलना है की भी जानकारी रखनी चाहिए। भगवान कहते हैं मौन रखने वाला मुनि होता है और यदि वह धर्म के बारे में बोलता है तो भी वह मौन ही माना जाता है। अधर्म के बारे में बोलने वाला मुनि नहीं हो सकता। मुनि ने कहा व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना चाहिए। जरूरी होने पर ही बोलना चाहिए अन्यथा शांत रहना चाहिए। बिना प्रमाण के कोई भी बात किस...
चेन्नई, साहुकारपेट स्थित जैन आराधना भवन में विराजित गणिवर्य पदमचंद्र सागर भगवान महावीर ने कहा कुछ जीव इन्द्रिय सहित जन्म लेते हैं तो कुछ जीव इन्द्रिय रहित। इन्द्रिय दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य और भाव। द्रव्य इन्द्रिय के दो प्रकार हैं, निवृत्ति (आकृति) और उपकरण। बाहर से जो इन्द्रिय दिखती है उसे निवृत्ति कहा जाता है और भीतर में जो यंत्र है जिससे बाहरी इन्द्रिय संचालित होती है, उसे उपकरण कहते हैं। भाव इन्द्रिय यानी जिस शक्ति से इन्द्रियों का संचालन होता है। शक्ति के दो प्रकार है- संग्रह और उपयोग। जब द्रव्य और भाव जुड़ते हैं तब ही इन्द्रियां कार्य करती हैं। उन्होंने बताया कि तेजस और कार्मण शरीर अनादिकाल से आत्मा के साथ है। अगर अलग हो जाये तो मोक्ष हो जाती है। आहार तीन प्रकार के होते है-ओजाहार, लोमाहार (जो गर्भ में ही लिया जाता है) और कवलाहार, जो गर्भ से बाहर आने के बाद लिया जाता है। महावीर न...
चेन्नई. ईदापेट जैन स्थानक में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा हिंसा अधर्म का मार्ग है, यह दुखों की खान है, नरक का द्वार है इसलिए ङ्क्षहसा से हमेशा बचें और दया धारण करें। हिंसा अशांति एवं दुख-दुर्गति देती है। यही कारण है पहले लोग जीवन जीने में भी ज्यादा हिंसा से बचते थे। समय बदल गया, आज पग-पग पर हिंसा के साधन हो गए हैं। पुराने जमाने के लोग बड़े दयालु होते थे। कमजोर, अमुक जानवरों व गरीबों की बहुत सहायता करते थे और वह भी चुपचाप बिना किसी प्रकार के प्रचार के। मुनि ने कहा व्यक्ति चार बातों से चतुर बनता है- मित्रता ज्ञानी से, पंडित के पास बैठने से, राजाओं की सभाओं में जाने से। दया धर्म का मूल है। जहां दया होगी वहां परमात्मा का वास होगा। सारे ज्ञान, शास्त्र एवं जिनवाणी आदि का सार यही है कि जीवों पर दया करो, उनकी रक्षा करो औ हिंसा का त्याग करो। संचालन राजेंद्र लूंकड़ ने किया।
चेन्नई, साहुकारपेट स्थित श्री जैन भवन में विराजित उपाध्याय प्रवर रविन्द्र मुनि ने कहा कि व्यक्ति का मन ही उसका सबसे बड़ा मित्र और सत्रु होता है। मन में अगर नाकारात्मक भावना उत्पन्न होती है तो वह सत्रु है और साकारात्मक उत्पन्न होतो मित्र होता है। लेकिन जब तक मनुष्य स्वयं से कोशिश नहीं करेगा तो उसके सुखी, दुखी होने का कारण कोई और नहीं हो सकता है। जीवन में सत्रुता का भाव रखने वाले व्यक्ति अगर किसी को सहद भी देते है तो वह जहर का काम करता है। वहीं अच्छी सोच वाले अगर जहर भी दे तो वह अमृत बन जाता है। व्यक्ति का सब कुछ उसके मन पर ही निर्भर करता है। वह जैसा सोचता है वैसा ही उसके साथ होता है। दुनियां में दिखावा करना झूठ बोलना बहुत ही आसान है। जो सच्चाई के मार्ग पर चलते है उन्हें जीवन में कभी भी परेशानी नहीं आती है। आज के समय में व्यक्ति के आचरड़ को देख कर लगता है कि मनुष्य के चोले में इंसान नहीं बल्...
चेन्नई सईदापेट जैन स्थानक में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा कल्याण चाहते हैं तो नम्र बनकर रहना होगा। धर्म के अंदर जाने के चार गुर हैं-पहला क्षमा यानी सहनशील होना चाहिए। इसी से एकता रहती है। दूसरे को निभाया जा सकता है। यह व्यक्ति को मजबूत करती है। दूसरा है सहनशीलता। क्षमा और सहनशीलता संत का आ ाूषण है। तीसरा विनय-द्वार। विनय धर्म का मूल है। चौथा सरलता, यह धर्म का पात्र है। सरल पात्र में ही धर्म टिकता है। कौवा बाहर से ही नहीं अंदर से भी काला है जबकि बगुला बाहर से सफेद और अंदर काला है। वह बाहर से तो साधु दिखता है लेकिन उसके काला भरा है। बगुला जैसे धर्मी बाहर तो दिखते धार्मिक हैं लेकिन अंदर पाप से भरे होते हैं। मुनि ने संथारे पर प्रकाश डालते हुए बताया कि संथारे से पहले आलोचना करना और अपने पूरे जीवन के पाप बोलना, फिर प्रतिक्रमण के बाद संथारा किया जाता है। तभी आत्मशांति मिलता है। जो सरल हैं वही संथारा...
चेन्नई, साहुकारपेट स्थित श्री जैन भवन में विराजित उपाध्याय प्रवर रवीन्द्र मुनि ने कहा व्यक्ति का सब कुछ ज्ञान और राग पर निर्भर करता है। जिन मिट्टी में मैत्री भाव का प्रभाव होने पर ज्ञान होता है वैसे ही राग के परिहार से साधुता आती है। जीवन में जैसे उजाले के समय में अंधेरा नहीं और अंधेरे के समय में उजाला नहीं होता है। इनको एक साथ करने की अगर व्यक्ति कोशिश करे तो कभी पूरी नहीं होती, क्योंकि दोनों को एक साथ रखना संभव नहीं। अगर व्यक्ति चाहे तो सफेद रंग में काले रंग को मिला सकता है लेकिन उनको कभी भी एक साथ नहीं कर सकता। उसी प्रकार यदि व्यक्ति के जीवन में ज्ञान का सद्भाव है तो राग का अभाव होगा। एक का सद्भाव दूसरे के अभाव का कारण बनता है। जीवन में राग का भाव है तो निश्चय ही उसके जीवन में ज्ञान का अभाव होगा। एक दम राग खत्म होना संभव नहीं होता। राग कोई चीज नहीं है जिसे जब चाहे तब बदल दें। संसार की क...