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सुख की परिभाषा है कषायों की मंदता, संक्लेश का अभाव और प्रसन्नता: आचार्य उदयप्रभ सूरी

सुख की परिभाषा है कषायों की मंदता, संक्लेश का अभाव और प्रसन्नता: आचार्य उदयप्रभ सूरी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने आचारांग सूत्र के अंतर्गत कहा कि कष्ट की साधना के मार्ग सुख देने वाले होते हैं। सुख के साधन का मार्ग दुख देने वाले हैं। सुख की परिभाषा है कषायों की मंदता, संक्लेश का अभाव और प्रसन्नता। ज्ञानी कहते हैं आत्मा के अंदर छोटे-मोटे संकलेश चलते ही रहते हैं, उनको अनुभव में न लें। हमें अपने मन के संक्लेश जब पता चलेंगे, तब हम शांत होंगे।

जगत में तीन प्रकार के सुख होते हैं मान्यता वाला सुख, व्यवहार सुख और परमार्थ सुख। भूख, विषय की इच्छा या गर्मी, ये सब मान्यता वाले सुख हैं। आज तक जीवात्मा मान्यता वाले सुखों को लेकर भ्रमणा में बैठा है। वर्तमान में व्यवहार सुख देखकर लोग कहते हैं हम तो बहुत सुखी हैं। ज्ञानी कहते हैं जब तक पुण्य है तब तक ही यह सब चलेगा। जब पुण्य की बात करनी है तो व्यक्ति स्वयं की करता है और पाप की बात करनी है तो दूसरों पर डाल देता हैं। यानी पुण्य के कार्यों में खुद को जश देता है। परंतु पाप के कार्यों में अपयश नहीं लेना चाहता। मन से जब क्रोध, वासना निकल जाएगी तब आप परमार्थ सुख पाएंगे।

उन्होंने कहा असली सुख वह है जो कभी अटकता नहीं, खटकता नहीं और जो कभी भटकता नहीं। जो सुख अटकता और भटकता है, वह सुख सुख नहीं है। जिनके पास पर के आधार के सुख हैं, वे अटक जाते हैं। आत्मा से आए हुए सुख कभी अटकते नहीं है। साधु का सुख पाताल कलश के पानी जैसा होता है। तालाब, टंकी सरिता का पानी सूख जाता है परन्तु पाताल कलश का पानी कायमी होता है। उन्होंने कहा सामग्री जितनी आप जोड़कर रखोगे, क्लेश उतने ही बढ़ेंगे। ज्ञानी कहते हैं सुखी बनना है तो सामग्री कम करना शुरू कर दो। संपत्ति का विरोध नहीं है, परिग्रह का विरोध है। परिग्रह से मन को छोड़ो।

मन को प्रभु भक्ति के सूत्रों के शब्दों में एवं उनके अर्थ और आलंबन के साथ जोड़ो। संपत्ति को नाखून, बाल के समान समझना। नाखून बढ़ने पर उसे काटते हैं, वैसे ही संपत्ति को परिग्रह में परिवर्तित मत होने दो। मरुदेवी माता ऋषभ देव को देखकर अहोभाव का आलंबन करते हैं। उन्होंने कहा राग वस्तु का नहीं होता है, वस्तु तो निमित्त बनती है, राग मन से पैदा होता है। अंदर के दोष व्यवहार के दोषों से प्रकट होते हैं, उसका निमित्त होती हैं वस्तु। क्रूरता, क्रोध बंद करने के लिए निमित्तों को बंद करना पड़ेगा। तीर्थंकर भी व्यवहार का पालन करते हैं। कर्मबंध के चार कारण है मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग। कर्म जितने कम होंगे आत्मा उतनी ही प्रसन्न रहेगी। तप, त्याग प्रमाद को घटाने का काम करते हैं।

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