श्री गुजराती जैन संघ, गांधीनगर, बेंगलुरू में चातुर्मासार्थ विराजित दक्षिण सूर्य ओजस्वी प्रवचनकार प. पू. डॉ. श्री वरुणमुनिजी म. सा. ने अपने मंगलमय प्रवचन में फरमाया कि जैन धर्म में मुख्य रूप से चार धाराएं हैं – श्वेतांबर मूर्तिपूजक, श्वेतांबर स्थानकवासी, श्वेतांबर तेरापंथी एवं दिगंबर परंपरा । नवकार महामंत्र चारों परंपराओं में समान रूप से मान्य है । भक्तामर स्तोत्र भी चारों संप्रदाय में मान्य है किंतु इसमें कहीं 44 श्लोक, तो कहीं 48 श्लोक की मान्यता है । आज हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि श्रद्धा इस जीव या आत्मा या चेतन को कहां से कहां तक पहुंचाने में समर्थ हो सकती है ? श्रद्धा का अर्थ है- सम्यक दर्शन ।
यह दो शब्दों से बना है सम्यक+दर्शन । दर्शन के तीन अर्थ हैं – प्रथम अर्थ में देखना यानि प्रभु या गुरु के दर्शन करना। दर्शन का दूसरा अर्थ विचारधारा है। जैसे – बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, वैदिक दर्शन, सांख्य दर्शन आदि । दर्शन का तीसरा अर्थ है – श्रद्धा । तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वामीजी फरमाते हैं कि *सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि* *मोक्षमार्ग:* अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्षमार्ग है । सम्यक् ज्ञान का अर्थ- सही जानना और सम्यक चारित्र का अर्थ – सही स्वीकारना या आचरण करना होता है ।
श्रद्धा दो प्रकार की हो सकती है । पहले – अंध श्रद्धा या मिथ्या श्रद्धा और दूसरी सम्यक् श्रद्धा या सम्यग दर्शन।
सम्यग् दर्शन तीन प्रकार का होता है- पहला व्यावहारिक सम्यक् दर्शन, जिसमें देव-गुरु और धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखना । गुरु मंत्र लेना, दीक्षा लेना, गुरु धारणा ग्रहण करना या समकित ग्रहण करना, इसके रूप हैं। जैन धर्म में किसी व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि गुणों की पूजा को महत्व दिया गया है । नवकार मंत्र इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । हम किसी नाम के पुजारी नहीं, गुणों के पुजारी हैं । चाहे वह राम हो, कृष्ण हो, महावीर हो या अन्य कोई तीर्थंकर हो । जिन्होंने अपने राग- द्वेष, विषय, कषाय और इंद्रियों को जीत लिया है, वही वीतरागी बनता है ।
गुरु का अर्थ है निर्ग्रंथ संत, जिनमें कोई गांठ नहीं या जो अपने पूर्व भवों की गांठों को खोलने वाले होते हैं ।
धर्म का अर्थ यहां जैन, सिख या बौद्ध धर्म से नहीं, किंतु जो वस्तु का स्वभाव है या जो धारण करने योग्य हैं, वही धर्म का सच्चा रूप है ।
सम्यक दर्शन की दूसरी सीढ़ी है- दार्शनिक सम्यक् दर्शन । तत्वार्थ सूत्र में उमास्वातिजी फरमाते हैं- *तत्वार्थ श्रद्धानां सम्यग्दर्शनं* अर्थात तत्त्वों पर सच्ची श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन का सही रूप है । तत्त्व मूल रूप से 9 प्रकार के हैं । दिगंबर परंपरा में 7 तत्त्व माने गए हैं और मुख्य रूप से जीव और अजीव दो मुख्य तत्व हैं । वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानना ही तत्त्व कहलाता है । शरीर रूप है तो आत्म स्वरूप है।
अंगूठी या चैन रूप है, तो सोना स्वरूप है । जो सदा जीवित रहता है, वह जीव है किंतु जो पुद्गल है, अचेतन है, सड़ना-गलना जिसका स्वभाव है, वह अजीव है। आत्मा को पवित्र बनाने में सहयोगी तत्त्व पुण्य है । जो आत्मा को अपवित्र बनाता है या पतन की ओर ले जाता है, वह पाप है । इसी प्रकार आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष, ये 9 मुख्य तत्व है।
सम्यक् दर्शन की तीसरी सीढी है- नैश्चिक सम्यक् दर्शन, जिसमें देव, गुरु या धर्म की भी मान्यता नहीं है। यहां एकमात्र आत्मा को ही विशुद्ध माना है । आत्मा ही परमात्मा बन सकती है, ऐसी मान्यता है ।
हम भी सम्यक् दर्शन के सच्चे स्वरूप को जानकर अपने आत्म कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करें ।
आज की प्रवचन सभा में बैंगलोर के उपनगरों एवं गांधीनगर के आसपास के क्षेत्रों के अनेक श्रद्धालु भक्तजन उपस्थित थे ।
मधुर गायक श्री रुपेश मुनि जी म. सा. ने अत्यंत मधुर भजन के साथ सभी श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया। उप प्रवर्तक परम पूज्यश्री पंकजमुनि जी म. सा. ने मंगल पाठ प्रदान किया ।