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महत्वाकांक्षा दुख का कारण: साध्वी संबोधि

महत्वाकांक्षा दुख का कारण: साध्वी संबोधि

जिनवाणी में संसार का स्वरूप बताया गया है यह संसार निश्चित ही दुःख रूप है। आधि, व्याधि और उपाधि से ग्रस्त इस संसार में सुख की अपेक्षा दुःख की मात्रा अधिक है। मनुष्य के पास सौ सुख हो और एक दुःख है तो वह एक दुःख भी उसे पीडित करता रहेगा। क्योकि सौ सुख होने पर भी वह स्वयं को सुखी नहीं मानता। सौ सुखों में से यदि एक सुख भी चला जाता है तो मनुष्य रोने लगता है हालाँकि निन्यानवें सुख उसके पास है फिर भी वह रोता है और शिकायत करता है।

मानव मन की यह बहुत बड़ी कमजोरी है कि जो सुख उसके पास नहीं है, उसके लिए वह सदैव चिन्ताग्रस्त रहता है। इस महत्वाकांक्षा ने मानव को जन्म से मृत्यु तक दौड़ाया है। इस दौड़ में मनुष्य थकान, टूटन और घुटन भले ही महसूस करता हो पर वह अपनी हार नहीं मान सकता। महत्वाकांक्षा की फाँस आदमी को कितना दौड़ाती है यह केवल भुक्तभोगी ही बता सकता है। ऐसे व्यक्ति केवल घड़ी की सूईयों की भाँति घूमते रहते हैं। असलियत तो यह है कि कुछ लोग इस दौड़ में चोट खाते हैं, जख्मी होते हैं और घावों को सहते हैं परन्तु उनके मन में महत्वाकांक्षा का इतना प्रबल आकर्षण रहता है कि वे अपने जख्मों पर मरहम पट्टी करके भी दोबारा दौड़ने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। जो अपनी इस दौड़ के प्रति सजग रहते हैं वे जीवन को जीत लेते हैं।

महत्वाकांक्षा या उच्चाकांक्षा एक ऐसा वृक्ष है जो सदा बढ़‌ता जाता है। महत्वाकांक्षा मानव हृदय की इतनी शक्तिशाली अभिलाषा है कि व्यक्ति चाहे कितने ही उच्च पद पा पहुंच जाए परन्तु वह संतुष्ट नहीं हो सकता क्योंकि महत्वाकांक्षा लालसा का निकृष्ट प्रतिबिम्ब है।महत्वाकांक्षा की दौड़ का मूल कारण मन में रही हुई हीनता ग्रंथि को या खालीपन को बताया है। भीतर में रही हुई हीनता ग्रंथि को भुलाने के लिए या मन के खालीपन को भरने के लिए महत्वाकांक्षा सहयोग देती है। इस दौड़ का परिणाम तनाव, अन्तर्द्वन्द्व एवं वैमनस्य की कटु श्रृंखला से अधिक कुछ नहीं हो सकता।

जब तक भीतर में महत्वाकांक्षा कायम है तब तक यह संसार जारी रहेगा। जब ऐसा लगे कि जैसा है वैसा ही अच्छा है, जैसा है वैसा ही हो सकता था, जो है उसके साथ जब तालमेल बैठ जाएगा तभी यह संसार समाप्त होगा। जैसे-जैसे असुरक्षा, चिन्ता व महत्वाकांक्षा का काँटा मन से निकलना आरम्भ होता है वैसे-वैसे आत्मविश्वास और आत्म संयम जीवन में अपना स्थान बनाते जाते हैं। हमारी निजी भटकन कम होती जाती है और हम स्थिर भाव से समाज के पोषक बन जाते हैं।

महत्वाकांक्षा की मृगमरीचिका में प्रत्येक व्यक्ति थकता है, ऊबता है और घायल होता है पर दौड नहीं छोड पाता क्योंकि दूसरा व्यक्ति उसे विश्राम लेने नहीं देता। दूसरों को दौड़ता देखकर प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता और नैतिकता को भूलकर भी दौड़ जारी रखता है। हालाँकि प्रत्येक मनुष्य अनूठा और अद्वितीय है। जब कोई व्यक्ति अपनी आत्म ऊर्जा में जीता है तभी परिपूर्ण रूप से विकसित होता है।

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