Share This Post

Featured News / Featured Slider / ज्ञान वाणी

मन के साथ इंद्रियों के विषय के कारण ही द्वंद्व शुरू हो जाता है: आचार्य उदयप्रभ सूरी

मन के साथ इंद्रियों के विषय के कारण ही द्वंद्व शुरू हो जाता है: आचार्य उदयप्रभ सूरी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने ध्यान क्रिया में प्रवेश करने के लिए पांच गुण बताए। वे हैं वैराग्य, तत्वज्ञान, निर्ग्रंथता, मन को वश में करना और परिषह को जीतना। ध्यान में एकाग्रता के साथ निर्मलता मिल जाए तो केवलज्ञान भी मिल जाता है। हम शब्दों से लोगों के साथ, ज्ञान से ज्ञानी के साथ और ध्यान से आत्मा के साथ बात कर सकते हैं।

ध्यान लाने के लिए भावनात्मक विचार लाने ही पड़ेंगे। ध्यान के तीन साधन है अंतःकरण, बाह्यकरण और परमात्म साधन। अंत:करण के साथ बाह्यकरण से बात करना ध्यान है। शब्द इंद्रियों का धर्म है जबकि ध्यान चिंतन व मन का धर्म है। सही या गलत है, यह बोलना आत्मा का धर्म है। उन्होंने कहा मन व बुद्धि में भी फर्क है। मति, बुद्धि, प्रज्ञा, स्मृति समान अर्थ वाले हैं। मन इनसे हटकर है। मन एक है, जो विचारों की आपूर्ति करता है। उन विचारों को अच्छे सिरे से ले जाना या बदल देना, यह बुद्धि का काम है।

बुद्धि में कई तरह के विचार प्रवेश करते हैं, मन के अंदर एक ही तरह के विचार प्रवेश करते हैं। सरलता कहती है बुद्धि मेरी है पर शुद्धि परमात्मा की है, ऐसी श्रद्धा की भाषा सच्चे भक्त की होती है। शब्द गुण का स्वभाव जीभ का है, सुनने का स्वभाव कान का है, इस तरह इंद्रियों को अलग-अलग लेवल पर कार्य कर्मसत्ता ने दिए हैं। शुभभाव, शुभचिंतन तभी आता है, जब इंद्रियों व मन के अंतर को समझ सकते हैं। अपनी इंद्रियां चंचल है। मन बार-बार कहर करता है तो वे उचक जाती है और मन के विचार आत्मा के अंदर जमा हो जाते हैं।

आचार्यश्री ने कहा आत्मा तो निर्विकार है, इसीलिए हर घटनाओं को मन तक ले जाने का कार्य मत करो। मन के साथ इंद्रियों के विषय के कारण ही द्वंद्व शुरू हो जाता हैं। ध्यान के लिए बारह भावना का स्मरण करो। संसार का हर पुद्गल अनित्य है, मेरा शरीर भी अनित्य है, ऐसी भावना दिमाग में रखो। शरीर की अपनी शोभा कुछ नहीं है, अलंकारों से ही उसकी शोभा होती है। इसके साथ एकत्व भावना, अशरण भावना, वैराग्य भावना, तत्व के ज्ञान आदि का स्मरण करो। हमारा मन समुद्र की लहरों जैसा है, मन को स्थिर करने का प्रयास करो। अभ्यास और वैराग्य से मन को स्थिर बना सकते हैं। उन्होंने कहा व्याधिकाल में धर्म के अलावा हमें कोई शरण नहीं दे सकता।

ज्ञानी कहते हैं अच्छा शगुन लेने के लिए अच्छे स्थान पर बार-बार जाते रहो। कभी कभार भाग्य से पुरुषार्थ आगे बढ़ जाता है। जो कार्य अपनी शक्ति से नहीं हो पाता तो ये तीन कार्य करना- दूसरों की अनुमोदना करना, थोड़ा अभ्यास करना और उससे भी नहीं हो तो नियति पर छोड़ देना। हमारे द्वारा की गई आराधना कभी निष्फल नहीं जाती। धर्म का अवसर कब मिलेगा, यह तो पता नहीं। उन्होंने कहा यह त्रिपदी हमेशा याद रखो- मृत्यु से डरना नहीं, मृत्यु को सामने से लाना नहीं और मृत्यु आए तो तैयारी रखना। ज्ञानी कहते हैं एक एक सेकंड में व्यक्ति यमालय जा रहा है, परंतु वह ऐसे जीता है, जैसे उसे कभी मृत्यु आएगी ही नहीं।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar