आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन संघ में धर्म प्रवचन देते हुए कहा कि यह सारा संसार गुण-दोषमय है। संसार की कोई भी वस्तु अथवा प्राणी सर्वथा गुणसंपन्न अथवा दोषमुक्त नहीं है। सभी में कुछ-न-कुछ दोष मिलेगा। परमात्मा ही अकेले पूर्ण एवं दोष रहित है। अन्य सब कुछ गुण-दोषमय एवं अपूर्ण है। सामान्यतः मनुष्यों में दोष-दर्शन का भाव रहा करता है। दोषदर्शी का वास्तव में यह बड़ा भारी दुर्भाग्य है कि वह किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में गुण ही नहीं पाता।
दूसरों के दोष देखते रहने वाले व्यक्ति स्वभावतः दोषग्राही भर होते हैं। दोष दर्शन से मनुष्य में दूसरों के ऐसे अनेक दोष भी घर कर जाते हैं, जो उसमें पहले से नहीं थे। जिस विषय में रुचि रखकर उसकी चर्चा एवं चिंतन किया जाएगा, वह मनुष्य के स्वभाव का अंग बन जाता है और धीरे-धीरे चेतना पर छा जाया करता है। दोषदर्शी व्यक्ति दूसरों की निंदा करने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता। निंदा की वृत्ति समाज में घृणा तथा वैमनस्य को जन्म देती है। परदोषदर्शी निंदक अपने मित्रों की संख्या कम कर लेता है और शत्रुओं की संख्या बढ़ा लेता है। दूसरों की दोष-गणना, छिद्रान्वेषण एवं निंदा करने का कुप्रभाव अपने पर ही पड़ता है।
परदोषदर्शन की दुर्बलता त्यागकर आत्मदोष दर्शन का साहस विकसित कीजिए। जब दृष्टि देखने में समर्थ है, तो वह गुण भी देखेगी और दोष भी। उन्होंने आगे कहा कि आपके प्रति यदि किसी का व्यवहार अनुचित प्रतीत होता है, तो यह मानने के पहले कि सारा दोष उसी का है, अपने पर विचार कर लिया करें। दूसरों पर दोषारोपण करने का आधा कारण तो स्वयंमेव समाप्त हो जाता है। अपनी प्रशंसा सभी को प्यारी लगती है, पर व्यंग्य या आलोचना हर किसी को अप्रिय है। आपके अप्रिय व्यवहार के कारण यदि अपशब्द, कटुता या तिरस्कार मिलता है, तो इसमें अपराधी आप भी हैं।
आपने ही प्रारंभ में इस स्थिति को जन्म दिया है। इसलिए दूसरों से प्रतिकार की भावना बनाने के पूर्व अपना भी दोष-दर्शन कर लिया करें। गुण औरों के और दोष अपने देखिए। जीवन में गुणों का विकास करने का यही तरीका है। परगुण एवं आत्मदोषदर्शी बनिए। दूसरों के दोष देखना, छिद्र खोजना, निंदा तथा आलोचना करने में अपने अमूल्य समय एवं अनमोल शक्ति का अपव्यय न करके उन्हें सत्कर्मों में लगाइए और संसार में सम्मान एवं सफलतापूर्वक जीकर जीवन पथ को प्रशस्त कर लीजिए।