किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरिजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिश्वरजी म.सा. ने प्रवचन में कहा कि हमें सबसे ज्यादा मोह काया का है। काया को स्वस्थ रखने के लिए तप रूपी दवा का उपयोग करना चाहिए। साता वेदनीय कर्म का बंध करने के लिए पर की पीड़ा करना छोड़ दो और परोपकार करना शुरू कर दो। कर्मसत्ता देता है सुख, लेकिन काम दुःखों के कराता है क्योंकि संसार में कहीं न कहीं दुःख तो पड़ा हुआ ही है।
छःकाय जीवों की विराधना से मुक्त होने के लिए आराधना करने का मुख्य स्रोत सामायिक है। प्रणिधान यानी निर्धार, प्रायश्चित और प्रसन्नता के अभाव में अपनी आराधना लम्बी चलने के बावजूद आत्मा का स्वभाव नहीं बदलता है। मन के अंदर क्लेश नहीं होना ही प्रसन्नता है। इसके लिए भविष्य की कल्पना नहीं करने के साथ पूर्व की दुःखी करने वाली घटनाओं को याद नहीं करना। उन्होंने कहा हमने संसार में अच्छे काम नहीं किए इसलिए नहीं, बल्कि बुरे कामों को नहीं छोड़ा, इसलिए संसार में भटक रहे हैं। हम विचारों को धक्का नहीं मार सकते, अच्छे विचारों के मन में प्रवेश करने की शुरुआत तो कर ही सकते हैं।
आचार्यश्री ने आगे कहा हमें मन के बुरे विचारों से निवृत्ति पाकर आत्मा को मोक्ष मार्ग पर अग्रसर करना है। ज्ञानी भगवंत हमें प्रेरित करते हुए कहते हैं तेरी आत्मा बच्चे की तरह है, उसकी चिंता तो तू करता नहीं और नश्वर शरीर की चिंता करता है। तूने तेरे मन की क्या दलदल दशा बना रखी है, अपनी दशा पर विचार कर। उन्होंने कहा पाप स्वीकार करने के बाद पापों की शुद्धि की शुरुआत करना मन की समाधि लाता है, इसके लिए योगसाधना शुरू करनी चाहिए और योगसाधना के लिए तप शुरू करना चाहिए।
तप करने से मन का शिथिलीकरण शुरू हो जाता है। उन्होंने कहा वायु प्राण भी है देता है, तो तूफान भी लाता है। पानी प्यास बुझाता है, तो सुनामी भी लाता है। जगत के सारे पदार्थ मारक भी है और तारक भी। हमारा मन भी तारक बन सकता है, उसके लिए हमारी साधना निस्स्वार्थमय होनी चाहिए। मन का निर्विचार होना उत्तम है। निर्विकल्प दशा के लिए पहले मन की शुद्धि जरूरी है। जो पाप की शुद्धि अहंकार के इरादे से किया गया धर्म पाप की शुद्धि नहीं करा सकता है। अहंकार का त्याग प्रायश्चित का प्राथमिक चरण है। मैले मन से की हुई साधना कोई काम की नहीं।