उन्होंने कहा संसार में कोई भी कार्य निष्पादन के पांच कारण होते है काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ। परमात्मस्वरुप को देखकर ही मोक्ष की प्राप्ति की इच्छा होती है।
निमित्त को ही मुख्य कारण बनाओ। आत्मा उपादान है लेकिन परमात्मा के आलम्बन के बिना परमात्मस्वरुप प्रकट नहीं हो सकता।
उन्होंने कहा मन में राग द्वेष होने के कारण शुभ निमित्त मिलना कठिन है। जिनशासन का अवलोकन करें तो अनेक शुभ निमित्त मिलेंगे।
उन्होंने कहा परमात्मा की प्रतिमा मनमोहक होनी चाहिए जिन्हें देखकर शुभ भाव उत्पन्न हो। साधु, श्रावक की क्रिया देखकर भी शुभ भाव पैदा हो सकते हैं।
समवशरण, स्नात्रपूजन, साधु भगवंत, श्रावक के दर्शन से मिथ्यात्व टूटता है। यदि यह सब देखकर आपको आनंद की अनुभूति होती है तो समझना सम्यक दर्शन के नजदीक हो। यदि नहीं, तो समझना आपका मिथ्यात्व प्रबल है।
उन्होंने कहा सिद्धर्षि गणि कहते हैं कि परमात्मा के प्रति बहुमान आपका पुरुषार्थ है लेकिन वह भी उनके अनुग्रह से ही है। पुण्य के मालिक परमात्मा है। वे हमारी चेतना को जागृत करते हैं। परमात्मा हमारी आत्मा का शुद्ध स्वरूप है।
उन्होंने कहा जैसे जैसे प्रभु के प्रति बहुमान बढ़ेगा परमात्मस्वरुप के साथ आत्मस्वरूप का दर्शन होने वाला है। उनकी कृपा से तथाभव्यत्व का परिपाक होता है।
उन्होंने कहा शून्य बने बिना अनंत का सर्जन संभव नहीं है। शून्य बनने की साधना की शुरुआत सबसे पहले मार्गानुसारि जीवन जीने से होती है जिसमें माता पिता की सेवा आदि होती है। जैसे जैसे प्रभु की भक्ति, प्रीति बढ़ती जाएगी, प्रभु का अनुग्रह बढ़ता जाएगा। धर्म ही हमारे जीवन का प्राण है।
जहां अहंकार पैदा हुआ आपकी साधना रुक जाएगी। भंवरलाल जैन (पी पी एन्टरप्राइज) ने 132वी वर्धमान तप की ओली के पच्चखाण ग्रहण किया। आचार्य ने उनके तप और ज्ञान की साधना की अनुमोदना की।