नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने बताया कि जब आत्मा निज स्वरूप में रमन करने लगती है तो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होने लगता है। प्रश्न ये है आत्मा भोग रही या शरीर । उत्तर है वेदना तो शरीर को मिलती है। पर शरीर जड है इसलिए आत्मा को दुख की अनुभूति होती है जिससे आर्त ध्यान रौद्र ध्यान आत्मा करती है। और कर्म बन्धन होते रहते हैं। ज्ञानी जन कहते हैं यदि चार कषायों का शमन कर लिया जाये तो कर्म बन्धन रूक जायेगे।
जैसे पारस पत्थर में लोहे को सोना बनाने का सामर्थ्य है। पर यदि लोहे पर मिट्टी का लेप आ जाये तो पारस पत्थर का स्पर्श पाकर भी वह सोना नही बन पायेगा! वैसे ही आत्मा में अनन्त साम्थर्य है जिससे मोक्ष प्राप्त हो सकता है। पर कर्म आवरण की वजह से आत्मा बेभान हो जाती है। और आत्मा को अपने साम्थर्य का बोध नही होता है। अत: ज्ञानीजन कहते है कि कर्म आवरण को हटाने का पुरुषार्थ करो जिससे आत्मा की अनन्त शक्ति प्रकट होने लगेगी। ज्ञान हुए बिना आत्मा अपने सम्यक्त्व लक्ष्य को प्राप्त नही कर पायेगी ।
आपके दोस्त, परिवारजन सब साथ दे सकते है पर धर्म ध्यान में साथ देने वाला बहुत दुर्लभ है। जब मोह का तीव्र आवरण होता है तो व्यक्ति ये जानते हुए भी कि संसार में मेरा कोई नही है ये मानने को तैयार नही होता । यहाँ तक मोह में मौत को गले लगा लेते है। जैसे गुटखा खाने वाला ये जानते हुए भी गुटखा सेहत के लिए हानिकारक है वो उसे खाता रहता है पर छोड़ नहीं पाता वैसे ही व्यक्ति भी संसार के मोह के कारण ये जानते हुए भी कि संसार सिर्फ दुःख स्वरूप है और जन्म मरण से मुक्ति पाने के लिए संसार छोड़ना ही पड़ेगा।
संसार छोड़ने पर ही शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी ऐसा तींर्थकर भगवान ने बताया है ये जानते हुए भी मानव संसार छोड़ने को तैयार नही हो पाते। ज्ञानीजन कहते हैं कि जब तक मोह कर्म का उदय रहता है तब तक जीव बेभान बनकर न करने वाले कर्म भी करता रहता है। इसलिए भगवान कहते है मोह को उपश्म करो, क्षय करो जैसे- मोह क्षीण होगा कर्म आवरण हटेगा और जीव को सम्यग दर्शन व ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी और एक क्षण में संसार को लात मार संयम के मार्ग पर अग्रसर हो जायेगा।
रोग होने पर डाक्टर की दवाई लेने से उस समय तो रोग उपश्म हो जाता है पर वह रोग पूरी तरह ठीक नहीं होता और निमित पाकर फिर से उदय में आता है और उस समय डॉक्टर भी हाथ झटक देते है। एक मात्र धर्म की शरण लेने पर ही सभी रोगो से मुक्ति मिलेगी क्योंकि रोग तो शरीर में है आत्मा में नही। संयम के मार्ग पर चलने वाले को यदि रोग हो भी जाये तो वह समभाव से सहन कर लेता है। जिससे उदय में आये वेदनीय कर्म झर जाते है। आगम में सनत्कुमार चक्रवाती का उदाहरण मिलता है जिन्होंने समभाव से उदय में आये रोग को सहन कर लिया।
अतः ज्ञानी जन कहते है सदैव समभाव में रहने का प्रयत्न करो। घर में उत्पन्न हुए जीवों की विराधन करते हो और बाहर जा कर जीव दया में हजारों लिखाते है ऐसा करने की बजाय सच्ची दया पालो प्रत्येक क्षण विवेक रखो जीवों की विराधना मत करो।