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धर्मास्तिकाय के बिना हम संसार में नहीं तिर सकते- आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

धर्मास्तिकाय के बिना हम संसार में नहीं तिर सकते- आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने ठाणेणं सूत्र की विवेचना करते हुए कहा कि जीवन में अल्प आयुष्य का बंध होने के तीन कारण है। पहला, जो आत्मा अपने जीवन के अंदर प्राणों की विराधना करता हो या उनको पीड़ा देता हो। प्राण दस होते हैं पांच इंद्रियां, मन, वचन, काया, आयुष्य और श्वासोश्वास। दूसरा, जो जीवन में मृषावाद यानी असत्य का सहारा लेता हो, चाहे वह असत्य बड़ई करने के लिए हो या खुद को सच साबित करने के लिए हो।

आचार्यश्री ने कहा मृषावाद (झूठ) के चार प्रकार होते हैं, पहला आस्तिक को नास्तिक बोलना, दूसरा नास्तिक को आस्तिक बोलना, तीसरा किसी की मार्मिक या रहस्यमय बात को उजागर करना और चौथा आरोप अथवा इल्जाम लगाना। उन्होंने कहा बासी, अभक्ष्य या कड़ा आहार का सुपात्रदान करना अल्पायुष्य के कर्मबंध का तीसरा कारण होता है। आचार्यश्री ने कहा जब मछली गति करती है तो वह पानी के सहारे करती है। कोई अन्य प्राणी ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि जलचर प्राणी पानी में ही जिएगा। इसी तरह धर्मास्तिकाय के बिना हम संसार में नहीं तिर सकते। इसमें तीन फैक्टर काम करते हैं, मछली यानी कर्ता कारण, पानी यानी सहकारी कारण और पुरुषार्थ यानी अपेक्षा कारण। पदार्थ, आत्मा और पुरुषार्थ तीनों मिलकर काम करते हैं।

उन्होंने कहा किसी की रहस्यमय या मार्मिक बातों को अन्य लोगों के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए, कहना भी पड़े तो अलग से बुलाकर कहना चाहिए। हमें अपने आरोपों या दोषों को दूसरों पर नहीं डालना चाहिए, उसका बहुत ही उपयोग रखना चाहिए, इससे भी अल्पायुष्य का बंध होता है। उन्होंने कहा अज्ञान दो प्रकार के होते हैं विकृत अज्ञान और अल्प अज्ञान। विकृत अज्ञान यानी जिसके अंदर गलत धारणाएं धारण करते हैं। अल्प अज्ञान मोक्ष का जवाबदार नहीं है। अज्ञान कम होने का कारण ज्ञानावरणीय कर्म हो सकते हैं लेकिन विकृत अज्ञान होने का कारण मोहनीय कर्म होता है। जीवन में रहे हुए अज्ञान को गुरु ही दूर कर सकते हैं।

गुरुदेव ने कहा साधु भगवंत को अकल्पी, अभक्ष्य या शरीर को नुकसान देने वाला आहार नहीं वहोराना चाहिए, यह भी अल्प आयुष्य बंध का कारण होता है। उन्होंने कहा दीक्षा का मतलब जीवन का नहीं, मन का समर्पण होता है। मन का समर्पण मतलब विचारमुक्त जीवन। गुरु का अनुग्रह मिले तो शिष्य की आत्मा तिर जाती है और वहीं, अनुग्रह के अभाव में आत्मा डूब जाती है। जिस आत्मा ने इंद्रियों पर नियंत्रण किया है और उसको गुरु का अनुग्रह मिला है, तो वह आत्मा कभी नहीं डूब सकती। उन्होंने कहा देव का अनुग्रह प्राप्त करना आसान है लेकिन गुरु का अनुग्रह प्राप्त करना कठिन है। ज्ञानी कहते हैं लोगों को भगवान पसंद है, पर गुरु नहीं लेकिन गुरु पसंद नहीं है तो भगवान भी नाराज रहते हैं।

बहुत बार भगवान और गुरु पसंद आते हैं लेकिन उनकी आज्ञा पसंद नहीं आती। ज्ञानी कहते हैं तीर्थंकर, गुरु, जीव और मालिक की आज्ञा के बिना साधु गोचरी भी नहीं ले सकते। उन्होंने कहा तीन व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके उपकार का बदला चुकाना मुश्किल है। वे हैं, माता-पिता, स्वामी या मालिक और धर्माचार्य या गुरु। तीनों में विशेष उपकार धर्माचार्य का होता है। उनके उपकार का बदला धर्म की समाधि देकर चुकाया जा सकता है। यह वही कर सकते हैं जो धर्म से जुड़े हुए होते हैं। गुरुदेव ने कहा उपकारी को सामग्री देना अलग बात है और समाधि देना अलग बात है। सामग्री शरीर की होती है और समाधि आत्मा की होती है और आत्मा ही परभव में साथ में आती है, सामग्री नहीं।

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