*क्रमांक — 474*
. *कर्म-दर्शन*
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*🔹जीव और कर्म के बंध पश्चात् परिणमन का स्वरूप*
*5. 5. अन्योन्य-अनुप्रवेश — पूज्यपाद के अनुसार आत्मा के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कन्धों का परस्पर अनुप्रवेश हो जाता है।*
*6. नैसर्गिक सम्बन्ध — योगसार में अमितगति लिखते हैं कि न कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है।*
*न कर्म हन्ति जीवस्य न जीवः कर्मणो गुणान् ।*
*वध्य-घातकभावोऽस्ति, नान्योऽन्यं जीवकर्मणोः ।।*
*दोनों स्वतन्त्र हैं तथापि यह ध्यान में रखना है कि संसारी जीव स्वरूपतः चेतन होते हुए भी पुद्गल या शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं है। इन दोनों में नैसर्गिक सम्बन्ध चला आ रहा है। ये दोनों परस्पर संबद्ध हैं, इसलिए इनमें अन्तः क्रिया होती है और एक-दूसरे को प्रभावित भी करते रहते हैं। लेकिन जीव एवं कर्म पुद्गल का आपस में वध्यघातक भाव नहीं है।*
*क्रमशः ……….. आगे की पोस्ट से जानने का प्रयास करेंगे जीव और कर्म के बंध पश्चात् परिणमन का स्वरूप के बारे में।*
*✒️लिखने में कुछ गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।