जो व्यक्ति न्याय, नीति और धर्मपूर्वक अपना जीवनयापन करते हैं, दूसरों के प्रति सहानुभूति, दया, क्षमा, सेवा, समता, करुणा, आत्मोपम्य का भाव रख कर जीते हैं, ऐसे लोग दूसरों के हृदय पर शासन करते हैं। उनकं सम्पर्क में आने वाले लोग उन्हें प्रणाम, वन्दन-नमन करते हैं, उनके गुणगान करते हैं, परन्तु वे किसी से ऐसी अपेक्षा नहीं करते। वे प्रशंसा करने वालों पर राग और निन्दा करने वालों या उपेक्षा करने वालों के प्रति द्वेषभाव नहीं रखते। वे अपना जीवन संतोषवृत्ति से सुखपूर्वक व्यतीत करते हैं। वे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करते जिससे दूसरों को कष्ट हो, अन्याय, अत्याचार या दमन से पीड़ित हो।
विश्व में अधिकांश व्यक्ति अपने जीवन को पुष्ट, लावण्यमय, सुखमय एवं विजयी बनाने के लिए दूसरों को पराजित करते हैं, सताते-दबाते और कुचलते हैं, पीड़ित करते रहते हैं, ऐसे व्यक्ति अपने विकास, अपने अभ्युदय और अपने प्रेय के लिए दूसरों का विनाश करते हैं, दूसरों को दास बनाकर उनके साथ मनमाना व्यवहार करते हैं। उन मदान्धों की मुस्कान दूसरों को परेशान करके टिकती है। ऐसा जीवन सौन्दर्यमय नहीं है।
मानव आत्मा के सौन्दर्य को न देखकर केवल शरीर के सौन्दर्य को ही अपना सौन्दर्य मान लेते हैं, जिसके कारण वे शरीर से सम्बन्धित निमित्तों, सगे-सम्बन्धियों, वस्तुओं या ऋतुओं को कोसते रहते हैं या शरीर से सम्बन्धित शारीरिक सौष्ठव सौन्दर्य, वस्त्र, धन-सम्पत्ति, परिवार आदि शुभ निमित्तों को देखकर गर्व करते रहते हैं। इन दोनों ही परिस्थितियों में निमित्तों को देखने के कारण मनुष्य नाना प्रकार के कर्मबन्धन करता रहता है जो भविष्य में अनेक भवों तक भटकाते रहते हैं।
इसके विपरीत जो मानव आत्मा के सौन्दर्य को देखता है वह वह शुभ कर्मों पर पर विश्वाश रखता है। कर्म क्षय कर लेने पर भव परम्परा समाप्त होगी। आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रकट होंगे, जिनसे उसका सौन्दर्य चमक उठेगा। प्रमत्त मनुष्य धन से श्राण नहीं पाता न इस लोक में न परलोक में। अतएव धर्म से ही आत्म का कल्याण होता है।