मानव जीवन अनेक घटना और दुर्घटनाओं का एक मेला है।
इस मेले में अनेक व्यक्तियों के साथ गुजरते हुए कुछ तनाव, टकराव और बिखराव के प्रसंग होते रहते हैं। जिससे मनुष्य का दिमाग अनेक प्रश्न, उलझन, समस्या और गलतफहमियों का शिकार बन जाता है। इस तरह की ग्रंथियों से उसका मन बोझिल बना रहता है। यदि चिन्तन की गहराई में जाकर इन सारी ग्रंथियों का मूल कारण खोजा जाए तो वह है आग्रह
अपने ही सोच-विचार को सच मानकर उसके साथ चिपक जाने का नाम आग्रह है। ऐसी स्थिति में दूसरे के दृष्टिकोण को गलत समझा जाता है, गौण कर दिया जाता है या उनके विचारों का समादर नहीं किया जाता। इस प्रकार आग्रही बनकर व्यक्ति अपने जीवन को तनाव और शिकायतों से भर लेता है।
जिस संसार में हम जीते हैं वह संसार ही द्वन्द्वात्मक है। यहाँ सारे तत्व प्रतिपक्ष को लिए हुए हैं। वस्तु हो या व्यक्ति, घटना हो या परिस्थिति सभी अपने विरोधी पक्ष के साथ जुड़े हुए हैं। देखा जाता है कि इस पृथ्वी पर फूल भी हैं तो शूल भी हैं, पुण्य है तो पाप भी है, सुख भी है तो दुःख भी है, शुभ है तो अशुभ भी है, अमृत भी है तो विष भी है, ऐसे में दोनों पक्षों का सहज स्वीकार करना जरूरी है। यदि कोई व्यक्ति किसी एक पक्ष को स्वीकार करने का आग्रह रखेगा तो उसका जीवन दुःख, अशांति और उद्विग्नता से भर जाएगा।
जीवन मार्ग पर चलते हुए भाँति-भाँति के लोग मिलते हैं। यह यथार्थ है कि सभी के विचारों की, व्यवहारों की, रुचियों की,
आदतों की, संस्कारों की व दृष्टिकोणों की एकरूपता नहीं हो सकती। इसलिए इस जीवन की सच्चाई को झेलने के लिए मनुष्य को अनाग्रही होना निहायत जरूरी है। प्रभु महावीर ने कहा- इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि जैसा मैं सोचता हूँ, बोलता हूँ, पहनता हूँ वैसा ही सब करें किन्तु ऐसा हो नहीं सकता; क्योंकि सबकी रुचियाँ विरोधी हैं और दृष्टिकोणों में भिन्नता है। एक न्यायाधीश का दृष्टिकोण अपने घर में और कोर्ट में भिन्न-भिन्न होता है। एक गाँव में जाने के लिए पचासों रास्ते हो सकते हैं और एक मकान में प्रवेश पाने के लिए अनेकों दरवाजे हो सकते हैं। एक ही दृश्य को अनेक पहलुओं से नापा जा सकता है।
प्रत्येक वस्तु के अनेक पक्ष और पहलू होते हैं। हिमालय पर्वत पर पूर्व दिशा की ओर से चढ़ने वाला व्यक्ति जो दृश्य देखेगा उससे कुछ भिन्न दृश्य पश्चिम दिशा की ओर से चढ़ने वाला देखेगा। उत्तर और दक्षिण दिशा से चढ़ने वाला पर्वतारोही हिमालय को अलग-
अलग दृश्यों से देखेगा। अब यदि चारों पर्वतारोही अपनी-अपनी बात पर अड़कर कहें कि जैसा मैंने देखा है वैसा ही हिमालय है। तुम झूठे हो और मैं सच्चा हूँ तो इस आग्रह का परिणाम विग्रह है। श्रमण महावीर की दृष्टि में चारों यात्रियों का चारों दिशाओं में सम्मिलित पर्यवेक्षण का सार ही सम्पूर्ण हिमालय है। अपने दृष्टिकोण से सत्य के एक पहलू को देखकर अदृश्य पहलू का खण्डन करना अधर्म है। दूसरों के विचारों को समझने का भी प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि वह भी सत्य हो सकता है। किसी भी विचार को आग्रह की दृष्टि से न सीचो; न खींचो।