किलपाॅक जैन संघ में हुई पंन्यास दयासिंधु विजयजी की गुणानुवाद सभा
किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीजी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी की निश्रा में पंन्यास दयासिंधु विजयजी महाराज की गुणानुवाद सभा आयोजित हुई। गौरतलब है कि पंन्यास मुनि हाल ही में गिरनार तीर्थ की यात्रा की 3000 सीढियां चढ़ने के दौरान कालधर्म को प्राप्त हुए। 52 वर्ष की आयु में उस समय उनकी वर्धमान तप की 94वीं ओली चल रही थी। वे गिरनार तीर्थ की यात्रा के साथ श्रावक के लिए लोच करने के लिए गिरनार पहाड़ जा रहे थे।
आचार्यश्री ने इस मौके पर कहा कि श्रमण जब कालधर्म पाते हैं, तब शोकसभा नहीं होती और करनी भी नहीं चाहिए। रोना उसके लिए पड़ता है, जो कहां गया पता नहीं। श्रमण के लिए ऐसा सोचना आवश्यक नहीं होता क्योंकि वे जब दीक्षित होते हैं तब यह जाहिर करके दीक्षित होते हैं कि सारा संसार नश्वर है। खून के रिश्ते संपत्ति, शरीर से बनते हैं और आत्मा के रिश्ते गुणों से मिलते हैं। उन्होंने कहा पंडित न होने पर भी उनके पास पांडित्य था। पंन्यास दयासिंधु विजयजी को 27 वर्ष की दीक्षा पर्याय में सन् 2012 में चेन्नई के साहुकारपेट स्थित आराधना भवन में उनके साथ चातुर्मास करने का अवसर मिला।
भारत भर के संघ उनके साधुजीवन से शिक्षा ग्रहण करते हैं। उन्होंने बताया कि उनका सांसारिक परिवार चेन्नई में ही रहता है। वे बचपन में पाठशाला में उनके सहपाठी रह चुके हैं। उन्होंने कहा जिस साधु के पास वैयावच्च का गुण हो तो उसका जल्दी मोक्ष होता है। धनवान की दोस्ती नहीं करोगे तो चलेगा लेकिन गुणवान की दोस्ती अवश्य करो। हमें साधु के अंदर प्रवचन के साथ आचरण भी देखना चाहिए। ज्ञानियों ने आचार परमो धर्म बोला है, ज्ञान परमो धर्म नहीं। प्रवचनकार के पास ज्ञान होगा, आचार वाले के पास विज्ञान होगा।
आचार्यश्री ने कहा ज्ञानियों ने वैयावच्च गुण को सर्वश्रेष्ठ बताया है। वैयावच्च करने वाले की विशेषता यह होती है कि उसे स्वयं के सुखों को छोड़ना पड़ता है। आगे वाले का गुस्सा, क्रोध सहन करने की तैयारी रखनी पड़ती है। वैयावच्च करने वालों के स्वयं के खान-पान का ठिकाना नहीं रहता। वे थक भी जाए तो कोई शिकायत नहीं कर सकते। वैयावच्च के अंदर अभिमान नहीं आता है।
ये वैयावच्च के गुण पंन्यास मुनि में कूट-कूट कर भरे थे। आचार्यश्री ने पंन्यास मुनि के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा वे दाज और दाक्षिण्यता के भाव को स्वीकार करते थे। वैयावच्च करने वाले किसी के सहयोग के बिना ही आगे बढ़ते हैं। उनको गुरु के सामने कभी बोलने का विचार तक नहीं आया। ऐसे गुणवान पुरुष उनके शिष्यों के लिए ही नहीं, गुरु के लिए भी आदर्श बनते हैं। उनका यतना यानी जयणा नाम का गुण अव्वल था और वर्धमान तप की ओली भी गतिमान थी।
उनका व्यवहार मिलनसार था एवं वे समायोज्य प्रकृति के थे। गिरनार को पांचवी टूंक कहा जाता है और ऐसी भूमि में प्राण त्यागने के लिए लोग तरसते हैं। उन्होंने कहा पाप करना जितना खराब है, पाप को देखना भी उतना ही खराब है। सत्य को जड़ मत बनाओ, सत्य को सात्विक बनाओ। मृत्यु महोत्सव बने, उसे ही सर्व विरति धर्म कहते हैं।