मानव का मन भावनाओं का एक अक्षय भंडार होता है। इसे सागर की उपमा दी जाए तो भी अतिशयोक्ति नहीं है। सागर में जिस प्रकार प्रतिपल असंख्य लहरें आती और जाती है, उसी प्रकार मन में भी निरन्तर भावनाओं की लहरें उठती रहती है। उसमें कुछ शुभ और कुछ अशुभ होती हैं, वही भावनाएं मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है। शुभ भावनाएं उत्तम संस्कारों को बनाती है, अशुभ भावनाएं कुसंस्कारों को। जिस प्रकार एक ही क्यारी में कान्दा और गन्ना बोने से गन्ने की मिठास समाप्त नहीं होती, कांदा अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता। उसी प्रकार मनुष्य में भी अच्छी और बुरी दोनों भावनाओं का एक साथ जन्म होता है। जब मानव को किसी में लाभ नजर आता है तो उसके उत्तम संस्कार जाग्रत हो जाते हैं और तब इच्छाओं पर कुठाराघात होता है तो तब उत्तम संस्कार ही कुसंस्कार बन जाते हैं। मानव यदि अपनी कुभावनाओं पर काबू नहीं रख पाता तो उसके मन में कुसंस्कारों का बीज जम जाता है और वही धीरे-धीरे उसे बुरे कर्म करने के लिए प्रेरित करता है तथा जो व्यक्ति दुर्भावनाओं के वेग में नहीं बहता, उन्हें लहरों के समान आने और जाने देता है, वह अपने हृदय में शुभ भावनाओं को रोककर सुसंस्कारों का निर्माण करता है तथा उनसे प्रेरणा पाकर अच्छे कर्म करने लगता है।
ये संस्कार ही मानव के चरित्र का निर्माण करते हैं। यदि संस्कार शुभहुए तो वह सत्चरित्र और संस्कार अशुभ हुए तो दुष्चरित्र व्यक्ति कहलाता है। जिस तरह कांदे की दुर्गन्ध को संस्कारी व्यक्ति पसन्द नहीं करता, उसी प्रकार दुष्वरित्र व्यक्ति को भी कोई नहीं चाहता। कोई भी मनुष्य अपने जन्म से ही महान् या निकृष्ट नहीं पैदा होता, वह धीरे धीरे अपने किए हुए संस्कारों के बल पर ही उत्तम या अधम बनता है।
जन्म से मनुष्य शूद्र ही पैदा होता है, किन्तु संस्कारों के उत्तम होने पर द्विज कहला सकता है।
मन में निरन्तर उठने वाली भावनाएं धीरे-धीरे संस्कार बन जाती है और संस्कारों का समूह चरित्र के रूप में प्रकट होता है। जब मन में अधिक संस्कार एकत्रित हो जाते हैं तो वे मनुष्य का स्वभाव बन जाते हैं और वह स्वभाव तबतक कायम रहता है, जब तक कि मनुष्य अपने संस्कारों के अनुसार कर्म करने का प्रयत्न करता रहे।
मनुष्य भले ही अनेकानेक शुभ संस्कारों का स्वामी बन जाए, किन्तु उन्हें बनाए रखने के लिए यदि वह क्रिया के रूप में उसका अभ्यास नहीं करेगा तो वे संस्कार उसके लिए लाभप्रद नहीं हो सकेंगे।
अभ्यास के द्वारा कुसंस्कारों को सुसंस्कारों में बदला जा सकता है तथा बुरी आदतों को अच्छी आदतों में परिवर्तित किया जा सकता है।
इस संसार में मानव के आचरण को दूषित करने वाले नानाप्रकार के प्रलोभन होते हैं। धन को प्राप्त करने के लिए वह अनेक पाप करता है, पुत्र, पौत्र पत्नी तथा अन्य परिजनों के मोह वशात् वह भांति-भांति की विडम्बनाएं सहता है तथा प्रसिद्धि और कीर्त्ति प्राप्त करने के लिए भी आकाश और धरती के कुलांचे मिलाता रहता है। अभिप्राय यह है कि इन प्रलोभनों के वश में होकर वह अनेक कुकर्म करने से नहीं चूकता।
किन्तु इन समस्त प्रलोभनों से भी बड़ा जो प्रलोभन है, वह है काम विकार। यह विकार मानव जीवन को पतन की ओर ले जाता है तथा वरदान बनने के बदले में घोर अभिशाप बन जाता है।- यह काम विकार एक विकार वृक्ष की जड़ के समान है। अन्य विकार इसी की शाखाएं और पत्ते हैं यदि इस मूल को उखाड़ दिया जाए तो शाखाएं और पत्ते स्वयं ही सूख जाते हैं। पुनः नहीं फलते। यानी काम के नाश हो जाने पर अन्य विकार स्वतः नष्ट हो जाते हैं।