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गुरु हमें मात्र पचक्खान ही नहीं देते, सामर्थ्य, सफलता और समाधि भी देते हैं: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

गुरु हमें मात्र पचक्खान ही नहीं देते, सामर्थ्य, सफलता और समाधि भी देते हैं: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीश्वरजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म. सा. ने देवशुद्धि अधिकार की विवेचना करते हुए कहा देव, गुरु और धर्म में सबसे प्रधान गुरुतत्व है। अरिहंत परमात्मा गुरुतत्व के निर्माता है।

गुरुतत्व को परमात्व तत्व बनाने का काम भी अरिहंत करते हैं। धर्म का मार्ग बताने वाले गुरु हैं। गुरु की परीक्षा शिष्य को कभी नहीं करनी चाहिए, लेकिन गुरु का आचरण, क्रिया आदि का अवलोकन अवश्य करना चाहिए। सच्चे गुरु में आत्मसंयम, सदाचार एवं सम्यक् ज्ञान का सुंदर समन्वय होता है। ज्ञानी कहते हैं यदि धर्म के विषय में हमने मार खाई तो भव-भव पछताना पड़ेगा। गुरु आत्मकल्याण का कार्य करते हैं। गुरु में विवेक, औचित्य, परकल्याण आदि की भावना होती है।

परमात्मा के शासन का आयोजन अद्भुत है। इस आयोजन के तहत हमें धर्म क्रियाओं का आनंद भरपूर लेना चाहिए। दीक्षा से पूर्व गुरुतत्व की पहचान करने के लिए गुरु का व्यवहार, स्वभाव, व्यक्तित्व कैसा है, यह जान लेना चाहिए। परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान गुरु ही दे सकते हैं। गुरु वे है, जो अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करे। गुरु मार्गदर्शक होते है।

आचार्यश्री ने कहा पदार्थ छोड़ना आसान है, परंतु पदार्थ का प्रेम छोड़ना मुश्किल है। परिवार दुःखी नहीं करता है, उनका मोह दुःखी करता है। ज्ञानी कहते हैं श्रावक का जीवन छ:काय जीवों के समारंभ से जुड़ा है। जो व्यक्ति संसार के पदार्थ को मिट्टी के समान समझता हो, वही गुरु की पहचान कर सकता है।

गुरु स्व पर आगम के ज्ञाता होने चाहिए। ज्ञानी कहते हैं तप के साथ विरतिधर्म को जोड़ लो, तप की महत्ता बहुत बढ़ जाएगी। तपस्वियों के संकल्प की ऊर्जा संघ को भी मिलती है। संसार की दुनियादारी से कोई भी उम्र में आजादपन मिलने वाला नहीं है। सात्विक शिष्यों के लिए गुरु का इशारा ही काफी होता है।

प्रभु के शासन का पचक्खान कमाल का है। अंतराय कर्म तोड़ने का मार्ग तप है। गुरु हमें मात्र पचक्खान ही नहीं देते, सामर्थ्य, सफलता और समाधि भी देते हैं। तप की जागृति गुरुतत्व से मिलती है। गुरु शरणागत को दुराचार के मार्ग पर नहीं जाने देंगे। गुरु गंभीर प्रकृति वाले होने चाहिए। शिष्यों की गंभीर गलतियों को भी परिवर्तन देने का सामर्थ्य गुरु में होना चाहिए। वे इंद्रियों के विजेता होने चाहिए। गुरु अभिमानमुक्त होने चाहिए। हमें अपने सर के ऊपर गुरु, वडील और कल्याण मित्र रखने चाहिए।

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