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क्षमा का पर्व समवत्सरी महापर्व: साध्वी संबोधि

क्षमा का पर्व समवत्सरी महापर्व: साध्वी संबोधि

संवत्सरी का महापर्व जन-जन के अन्तर्मानस में अभिनव जागृति का संदेश लेकर आता इसे क्षमा पर्व भी कहते हैं।

संवत्सरी महापर्व का जो विशेष संदेश है, वह यह है कि व्यक्ति अपने भीतर में सम्पूर्ण जीव-जगत अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति क्षमा का, समत्व का पवित्र भाव जागृत करें। आध्यात्मिक साधना में तभी प्राण पैदा होता है, जब समत्व और उपशम का भाव जीवन में स्थान पाता है। महापर्व संवत्सरी के अवसर पर व्यक्ति सम्पूर्ण जीव जगत को क्षमा देता है और क्षमा लेता है।

खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा वि खमन्तु में। मित्ति में सव्व भूएसु, वेरं मज्झं न केणइ ॥

मैं सम्पूर्ण जीव जगत से क्षमा माँग रहा हूँ, वे भी मुझे क्षमा करें। मेरी सभी प्राणियों के साथ मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर-विरोध नहीं है। साधक कामना करता है- क्षमापना का यह भाव, यदि जीवन में प्रविष्ट हो जाता है तो फिर किसी के साथ किसी भी प्रकार की कटुता की, कोई कल्पना ही नहीं रह जाती। यदि व्यक्ति अपने जीवन के व्यवहार में सच्चे अर्थों में आत्मसात कर ले तो विश्व में कहीं भी किसी भी प्रकार के वैर-विरोध की संभावना ही न रहे।

क्षमा अंतर का आलोक है। क्षमा जीवन की सौरभ है। इससे प्रफुल्लता की अभिवृद्धि होती है। क्षमा सबसे बड़ा धर्म है और सबसे बड़ा तप है। इससे सम्पूर्ण जीवन और जगत गौरवान्वित होता है, इसकी अनुभूति हार्दिकता से जुड़कर ही की जा सकती है।

वैर-विरोध और विषमता के भाव को मजबूत न बनाएँ। बिना क्षमापना किये यदि कोई काल-कलवित हो जाता है तो वह दुर्गति का पात्र बनता है। किसी के साथ किसी की बात को लेकर यदि कलह हो जाता है तो तुरन्त उससे क्षमापना कर लेनी चाहिए। संघर्ष को तुरन्त समाधान दे देने से तनाव एवं हानि के द्वार बन्द हो जाते हैं। यदि हम तुरन्त क्षमापना नहीं कर पाएँ तो संवत्सरी महावपर्व पर तो अपने आपको शल्य मुक्त बना ही लेवें।

जो जीव को कुलषित करता है, उसे कषाय कहते हैं। संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय है। कषाय सदैव हलका करते रहना चाहिए। क्षमा कायरता नहीं, अपितु आंतरिक तेजस्विता है। महावीरता का नाम ही क्षमा है। क्षमा को वीरों का भूषण कहा गया है। क्षमा से कोई वीर ही जुड़ सकता है।

पारस्परिकता को प्रगाढ़ता दें, एक-दूसरे को ठीक तरह से समझें, किसी के प्रति कटुता और कालुष्य का भाव अपने मन में न रखें। कटुता का भाव सबसे पहले उसी का अनिष्ट करता है, जो इसे अपने भीतर स्थान देता है। क्षमा और समत्व के आधार पर सम्पूर्ण संसार में निश्चित रूप से मधुरता से परिपूर्ण वातावरण निर्मित किया जा सकता है। यदि ऐसा कुछ कर पाये और मैत्री-भाव के दीप संजो सके तो यह महापर्व सम्वत्सरी सभी के लिए वरदान रूप सिद्ध होगा।

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