आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने बिन्नी नोर्थटाउन के श्री सुमतिवल्लभ जैन संघ में धर्म प्रवचन देते हुए कहा कि काम क्रोध मद लोभ मोह यह पाँच अवगुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के शत्रु हैं। यह पाँचो ही व्यक्ति के स्वाभाविक एवं प्राकृतिक गुण नहीं हैं। इनमें से मद को अहंकार भी ही कहते हैं और अहंकार हमारे पतन का कारण होता है। यह मनुष्य द्वारा स्व अर्जित मनोरोग है । यह मनुष्य द्वारा स्वयं पाला गया रोग है। इसके प्रभाव से सज्जन भी अपना विवेक खो देता है और गलत व्यवहार करने लगता है अर्थात् इससे विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के नष्ट होते ही मनुष्य पशुवत आचरण करने लगता है।
ऐसा इसलिए होता है कि जब मनुष्य भीतर से तो खाली होता है लेकिन संसार में वह अपने आपको कुछ अधिक प्रदर्शित करना चाहता है ,तब वह एक अनुचित आवरण अपने चारों तरफ सृजित कर लेता है और जो कुरचित आवरण उसने अपने चारों तरफ सृजित किया है , समाज से उसकी स्वीकृति चाहता है कि मुझे ऐसा ही मानो। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। ऐसा व्यक्ति अपने अंदर और बाहर दोनों से ही खाली होता है। अपने अंदर बनाए गए कुरचित आवरण की वजह से ही ऐसा व्यक्ति परमात्मा के चरणों में नमन नहीं करता और इसीलिए ऐसे व्यक्ति का पतन होता है। यदि अधोगति से अपने आपको सुरक्षित रखना है तो घमंड , अभिमान , अहंकार अर्थात् मद को त्याग देना चाहिए।
उन्होंने आगे कहा कि वास्तव में क्रोध भी एक मनोरोग है। यह शरीर की एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमारे शरीर के अंदर रासायनिक परिवर्तनों को जन्म देती है। क्रोध से हमारे शरीर की सहनशक्ति एवं विवेक बुद्धि सब नष्ट हो जाती हैं, क्रोध पर विजय पाना संयम से ही संभव है। धारणा, ध्यान और समाधि जब तीनों एकत्रित हो जाते हैं तो वह स्थिति संयम कहलाती है । जिस प्रकार हम देखते हैं कि संयम एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थिति मनुष्य के जीवन में होती है । जितना सरलता से हम कह देते हैं कि संयम रखो , उतना सरल शब्द है नहीं बल्कि इसके अंदर बहुत सारे आयाम छिपे हैं।