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आसक्तियों से विरक्त बने : आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीजी

आसक्तियों से विरक्त बने : आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीजी
बेंगलुरु। अक्कीपेट जैन संघ में चातुर्मासार्थ विराजमान आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने सोमवार को अपने प्रवचन में कहा कि संसार से सुख लेने की इच्छा ही दुख का मूल है। देखा जाए तो इस संसार में कोई भी सुखी नहीं है। जिस सुख का हमें आभास हो रहा है वह वास्तविक नहीं है। अज्ञानी लोग इसे सुख मानकर इसी में डूबे हुए हैं।
उन्होंने कहा कि जन्म के साथ मरण, यौवन के साथ बुढ़ापा और विकास के साथ ह्रास जुड़ा हुआ है। इस जीवन में कब क्या घटित होगा इसका किसी को नहीं पता। आधुनिकता के इस दौर में दुनिया को स्थायी समाधान अध्यात्म ही दे सकता है। यह विश्व का सर्वोपरि विज्ञान है। आचार्यश्री ने कहा कि सभी जीव खुशी चाहते हैं। कोई भी दुख नहीं चाहता। अध्यात्म हमें दुख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति के मार्ग सुझाता है।
संसार में जिसका जन्म हुआ उसका अंत निश्चित है। यहां राम, महावीर आए और वे भी चले गए। हम आम मनुष्य की क्या बिसात। यह जीवन इंसान के पूर्व जन्मों का फल है। इसलिए इसके हर क्षण का सदुपयोग करना चाहिए। अवसर का दुरुपयोग करने पर व्यक्ति अपना सर्वस्व गंवा बैठता है। फिर उसे पछताना पड़ता है।
संसार में अधिक राग और मोह ईश्वर प्राप्ति में बाधक है। इसलिए त्याग ही उस परमसत्य को पाने का सहज और सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। त्याग से ही महापुरुषों ने संसार को प्रकाशमान किया है। जिसने भी जीवन में त्याग की भावना को अंगीकार किया उसने ही उच्च से उच्च मानदंड स्थापित किए हैं। सच्चा सुख व शांति त्यागने में है न कि किसी प्रकार कुछ हासिल कर लेने में। आचार्यश्री ने आगे कहा  कि त्याग से तत्काल शांति की प्राप्ति होती है और जहां शांति है वहीं सच्चा सुख है।
इंसान अपने जीवन में सारा श्रम भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही लगा देता है। वह अपने सीमित जीवन में सभी कुछ पा लेना चाहता है। वह जितना भौतिक लाभ प्राप्त करता जाता है, उसकी सांसारिक तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है। यह तृष्णा उसे शांति से बैठने नहीं देती। इस तृष्णा से छुटकारा पाने की जरूरत है।
यह समझना जरूरी है कि आपत्ति आवश्यकताओं से नहीं है। लेकिन उन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पश्चात मनुष्य को रुक कर विचारने की आवश्यकता है कि अब हमें किस मार्ग की ओर बढ़ना है। उन्होंने कहा कि हम सभी को ईश्वर की अनुभूति करने और समाज में उच्च मानदंड स्थापित करने के लिए त्याग की भावना को अंगीकार कर उस पथ पर बढ़ने की आवश्यकता है। 
इंसान को वे सभी आसक्तियां छोड़नी चाहिए जो जीवन को संकीर्णता की ओर ले जाती हैं। यही त्याग वृत्ति अंत:करण को पवित्र कर भीतर के तेज को देदीप्यमान करती है। हमारे यहां त्याग की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही है।
आसक्ति से विरक्त हो जाने वालों की यहां पूजा की जाती है। भगवान श्रीराम द्वारा अयोध्या के राज्य को एक क्षण में त्याग देने जैसे स्थापित किए गए आदर्श को संसार पूजता है। राज्य का त्याग कर और वन जाना स्वीकार कर उन्होंने समाज में उच्चतम मानदंड स्थापित किया। साथ ही लोगों को धर्म, अध्यात्म, ज्ञान व भक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी।

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