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अनादि काल से आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है: जयतिलक मुनिजी

अनादि काल से आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है: जयतिलक मुनिजी

नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में कहा कि आत्म बंधुओ, अनादि काल से आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है। परिभ्रमण का मूल कारण आठ कर्मो का बंधन है। इस बधंन से छुटकारा पाने कि परम व चरम

औषधि धर्म है। धर्म के आभाव में न कोई आत्मा संसार से मुक्त हुई है न होगी। धर्म ही आत्मा को शाश्वत सुख प्रदान करता है इस संसार में सार्थक काम धर्म ही है पर अज्ञानता के कारण व्यक्ति प्रात: उठते ही निरर्थक कार्य में लग जाता है।

ज्ञानीजन कहते है प्रात: उठते ही आत्म शुद्धि की क्रिया करो जैसे प्रात: उठते ही बासी झाड़ू, पानी छानना, दंत मंजन करना, मल विर्सजन करना आवश्यक है वैसे ही प्रात: उठते ही आत्मा शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक है जिससे मन, वचन, काया तीनों की शुद्धि स्वतः ही हो जाती है । प्रतिक्रमण में कोई खर्चा नही लगता पर घर की शुद्धि व लिए खर्च कर अलने शरीर की शुद्धि करने के लिए खर्च व सामग्री लानी पड़ती है।

जैन कुल में जन्म लेने बाद यदि धर्म को जीवन में न उतार सिर्फ उपभोग – परिभोग मे लगे रहे तो मनुष्य जन्म – व्यर्थ हो जाता है। 12 व्रत धारण कर जीव अपने तन, मन और वाणी को धर्म से जोड़ता है तो कर्म बंधन से रक्षा स्वतः ही हो जाती है। धर्म का अर्थ:-र यानि रक्षा करने वाला जो जीव को दुर्गति से बचा कर उच्च स्थान में ले जाये वही धर्म है। इसलिए जीवन में मर्यादा और संयम धारण करो उत्तम पदार्थों के सेवन का आगार रख तुच्छ पदार्थों का त्याग करो।

उत्तम पुरुष अपना मन धर्म में लगाते है और अधम पुरुष उपभोग – परिभोग व कामना में ही लगे रहते है। द्रव्यों की मर्यादा करने से जीवन अच्छा लगता है इसलिए ज्ञानीजन कहते है जहाँ भोग है वहाँ रोग है ।

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