चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा सुख महत्वाकांक्षा की पूर्ति में नहीं, सुख अहम की पुष्टि एवं अमीर-गरीब होने में नहीं, सुख अनपढ़ या विद्वान होने या उच्च पद पर पहुंचने में भी नहीं है, सुख है विवेकपूर्ण समझ और आत्म-संतोष में। अपनी समझ बढ़ाकर उसका सदुपयोग करें। अवसर मिले तो सत्संग में जाएं। ज्ञान और वैराग्य के अभाव में भक्ति रोती है एवं श्रद्धा के अभाव में भक्ति अंधी है। जब दो बाल्टी पानी रखने वाले घड़े को भी कसौटी पर कसा जाता है उसे भी हिचकोले खाने पड़ते हैं फिर आप तो इन्सान हैं। आप में परमात्मा का वास है। आपका अपना क्या है। आपकी बेटी जंवाई की अमानत है समय आने पर ले जाएगा। बेटा बहू की अमानत है समय आने पर उसका हो जाएगा। शरीर श्मशान की अमानत है समय आने पर जला दिया जाएगा। केवल तुम्हारा तो परमात्मा है जिसके हो उसके हो जाओ। गीता मात्र सांसारिक ज्ञान ह...
चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा दान के तीन भेद हैं-तामसिक दान, राजसिक दान और सात्विक दान। त्याग भी तीन प्रकार का होता है राजसिक त्याग, तामसिक त्याग और सात्विक त्याग। दान होता है प्रिय वस्तु का और त्याग होता है अप्रिय वस्तु का। जिसमें प्राण अटके हैं वह प्रिय वस्तु है। भौतिक वस्तुएं जिसके कारण तृष्णा का नाटक चल रहा है उनका दान करना चाहिए। अप्रिय वस्तुएं राग, द्वेष, क्रोध, मान व माया है इनका त्याग करना चाहिए। जिन कषायों व हिंसा के कारण पतन हो रहा है और जन्म मरण हो रहा है उनका त्याग कर देना चाहिए। दान देना मेरा कर्तव्य है इस भावना से जो दान किया जाता है वह सात्विक है। सात्विक दान की विशेषता है दाता समाप्त हो जाता है पर कृत्य जीवित रहता है। अनंत काल तक उसके गुण गाए जाते हैं। सात्विक दान और त्याग का अर्थ है फलाकांक्षा से रहित होकर दान देना और साधना...
चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा कि तप के तीन भेद हैं तामसिक तप, राजसिक तप और सात्विक तप। तामसिक तप वाला हिंसा से भरा हुआ है। राजसिक तप वाला सम्मान की आकांक्षा से भरा हुआ है। सात्विक तप वाला साधना में लीन होता है तो परमात्मा का आकांक्षा से भरा है। सदियों से मनुष्य की ऊर्जा अधोगति की ओर बह रही है। जीवन की अग्नि नीचे की ओर बह रही है। अग्नि को ऊपर ले जाने के लिए साधन नहीं साधना चाहिए। यंत्र नहीं, मंत्र चाहिए। पदार्थ नहीं परमात्मा चाहिए। ध्यानाग्नि कुछ नहीं मांगती। हमारी आदतों ने स्वभाव को दबा दिया है। आदतों के पत्थर चेतना के ऊपर पर्वतों की तरह खड़े हैं। आदत हमारी मालिक बन गई है। वो हमें आदेश देती है और हम पालन करते हैं। सम्यक तप का अर्थ है स्वभाव को खोजो, स्वभाव में जीओ। मिथ्या तप का अर्थ है विभाव में जीओ। पदार्थ मांगो, पद मांगो। प्रशंसा के पीछे ...
चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा संयम के अभाव में मन चंचल है। जीवन में संयम बहुत जरूरी है। प्रकृति व आध्यात्मिक व्यवस्था संयमबद्ध है तथा सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था भी संयमबद्ध है। आत्मा राग द्वेष के कीच में फंसी हुई है और विभिन्न योनियों की यात्रा जारी है। हम अंधे बने हुए हैं। जिसने भी संयम का उल्लघन किया वह दुखी हुआ है। आप सडक़ पर नियमबद्ध चलते हैं तो गिरते नहीं हैं। आपने प्रकृति का उल्लंघन किया तो प्राकृतिक प्रकोप बढ़ गया। ऋतुएं अब समय पर नहीं आती। नट रस्सी पर बैलेंस बनाकर चलता है तो गिरता नहीं है। बैलेंस बिगड़ता है तो गिर जाता है। परमात्मा व्यक्ति की तरह नहीं सिद्धांत की तरह है। जो उस सिद्धांत को मानकर जाग जाता है नियम व संयम के साथ एकमेव हो जाता है वह स्वयं परमात्मा हो जाता है। मनुष्य संयम के अनुकूल चलता है तो स्वयं की गहराई को पा लेता है...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा कि मित्रता जरूरी नहीं पाप से बचना जरूरी है। पशु सेवा अवश्य करनी चाहिए। द्वार पर आए गरीब को दान अवश्य दें। दान न दे सको तो मीठे शब्द अवश्य कहें अपशब्द नहीं। छोटे छोटे पुण्य के कार्य करके जीवन सफल बना सकते हो। ये सत्य है कि एक फूल से इत्र नहीं निकाला जा सकता। असंख्य फूल से निकाला जा सकता। इसी तरह छोटे छोटे सत्य कार्य करते रहो एक दिन वह महान अवसर बन आ जाएगा। जो छोटे छोटे पाप कार्य से बचते हैं एक दिन महान कार्य संपन्न करते हैं। छोटा धर्म कार्य भी बड़ा ही होता है और महान सत्कार्यो का उपवन बन महकता है। गांधी इसके उदाहरण हैं। यह स्वतंत्रता उन जैसे महान आत्माओं द्वारा दिया गया पुरस्कार है। आग की एक छोटी सी चिंगारी को छोटा मत समझना उससे पूरा वन जल सकता है। ऋण को छोटा मत समझना कभी भी दिवाला निकालवा सकता है। घाव को छोटा मत समझना ...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा दुर्जन व्यक्ति का आनंद भीड़ को गुमराह करने में है सुधारने में नहीं, ताकि उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे। लोगों में उसका दबदबा बना रहे। अपनी उन्नति को पुष्ट करने व अपनी दुर्भावना से सबको जोड़ता रहे। यह जघन्य अपराध है। अच्छा आचरण करना दूसरा व्यक्ति स्वीकार करेगा या नहीं इसमें संदेह है। कोई दुर्जन अपनी दुष्प्रवृत्तियों को जगजाहिर कभी नहीं करता। वह बदनामी से डरता है। भीड़ का नहीं विवेक का अनुसरण करना चाहिए। भीड़ का अनुसरण करने वाला सुधरता नहीं बिगड़ता है। एक कुशल वक्ता हजारों-लाखों को कुछ मिनट के भाषण में गुमराह कर सकता है लेकिन भाषणकर्ता को स्वयं को सुधारने में वर्षों लग सकते हैं। व्यक्ति अपना स्वास्थ्य रोगी को नहीं देता लेकिन अपना रोग दूसरों को दिए बिना नहीं रहता। उन्होंने कहा मेरा प्रयास दुर्जनों को सज्जन बनाने का है एवं जो सज्...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा प्रेम सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ तत्व है। प्रेम की ताकत के सामने आदमी झुकता है। रावण ने वासना के तूफान में सीता का अपहरण किया था। रावण को राम ने नहीं उसके काम ने मारा था। हिरणी अपने बच्चे के प्रेम के कारण सिंह का सामना करती है और सफल भी होती है। यह बात अलग है कि प्रेम के नाम पर ही धोखा हो रहा है। लोग वासना को प्रेम का नाम दे रहे हैं। हम दुर्गति में भटकने के लिए पैदा नहीं हुए। यदि परमात्मा बनना है तो ऊर्जा को ऊध्र्वगामी बनाओ। ऊर्जा पुरुषो का ध्यान करो। जैसे मोबाइल की बैटरी चार्ज करते हो, परमातमा की ऊर्जा से स्वयं को चार्ज करो। इससे हमारी आत्मा को इस अंधकार में फिर न भटकना न पड़े। आत्मा सीता कर्मो के कारागर में कैद है। राम की तरह संयम के तीर से कामना -वासना के रावण का अंत करो। धर्म के अभाव में जीवन नरक है। प्रेम सर्वांग का र...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा पाप अज्ञान में पैदा होता है। पत्ते मत तोड़ो, नींव तोड़ो, जड़ को काटो। पापी से नहीं पाप से नफरत करो। पापी को नहीं पाप को मिटाना है। तीर्थकंर का ज्ञान शास्त्रीय पुस्तक नहीं था। उनकी साधना से प्रकट हुआ था। जब महावीर को कैवल्य ज्ञान हुआ देवताओं ने समवशरण की रचना की। सभी प्राणियों को शरण दी। तरुणसागर ने भी सभी को शरण दी। सबको सुनाया, जगाया, मार्ग दिखाया। हजारों जुगनू मिलकर प्रकाश नहीं कर सकते। अज्ञान तो परमात्मा के पास जाने ही नहीं देता है। अज्ञान का पहला मित्र है स्वार्थ, दूसरा है हिंसा और तीसरा है अधिकार ये सब महावीर में नहीं थी। तुम्हारे पास टीवी ,अखबार और पुस्तकों से एकत्रित ज्ञान है जो तुम्हें संभलने नहीं देता। स्कूली ज्ञान ने सिर्फ प्रतिसपर्धा सिखाई है। जिस ज्ञान में राग द्वेष है मोह माया है वह हानिकारक है और जो ज्ञान...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा क्रोध, मान, माया लोभ भयंकर रोग है। शारीरिक रोग को समाप्त करना आसान है पर आध्यात्मिक रोग को समाप्त करना बहुत मुश्किल है। इससे बचने के लिए असली वैद्य की जरूरत है। संसारी प्राणी को तीन रोग सता रहे हैं-जन्म, जरा और मृत्यु। शरीर को तीन तत्व वात, पित्त और कफ सता रहे हैं। अगर यदि इन तीनों का संतुलन बिगड़ जाए तो आदमी बीमार पड़ जाता है। रोग का कारण पता लग जाए तो बीमारी जाने में समय नहीं लगता। संसार भ्रमण के तीन कारण हैं- मिथ्या, अज्ञान और असंयम। इसे महावीर मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचरित्र कहते हैं। इनके गर्भ में मोह राग और द्वेष का जन्म होता है। इनके कारण परिवार की शांति भंग होती है और परिवार के संबंध बिगड़ते हैं। जिसने अपने जन्म,जरा, मरण के रोग मिटा लिए हों या उनको मिटाने की साधना में संलग्र हों वही असली वैद्य है। सच्च...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा आदमी के पास सम्यक दृष्टि नहीं है। वह हमेशा शिकायत करता है कि उसे कोई पूछता नहीं है। परमात्मा के समवशरण में रत्नों से पूजा होती है। देवता भक्ति में संलग्न रहते हैं। यहां मांगने से कुछ नहीं मिलता, वहां बिना मांगे सब कुछ है। ये गिले तभी तक है जब तक हमारी दृष्टि सम्यक नहीं है। आदमी बड़ा अद्भुत है। अहंकार को छोडऩा नहीं चाहता और जीवन के आनंद को पाना चाहता है। कीचड़ से बाहर आना नहीं चाहता और शरीर को स्वच्छ रखना चाहता है। जीवन में दो मार्ग है जौहरी बनने के और पंसारी बनने के। पंसारी बनकर सब पसारा ही किया जा सकता है। जौहरी बनने के लिए दृष्टि की जरूरत है, रत्नों को पहचानने की कला की जरूरत है। पुरुषार्थ करो लेकिन समर्पण की अंगुली पकड़ा दो। ज्ञान का आभूषण विनय है। विनय के पांच भेद हैं। लोक विन यानी अपने से बड़े का आदर करो। काम ंवि...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा जो दूसरों को दुख देता है वह अपने लिए दुख निर्मित करता है। दूसरे को सुख देना स्वयं को ही सुख देना तथा दूसरे को सजा देना खुद को ही सजा देना है। तुम्हारे बंधन और मुक्ति में तुम्हारे अतिरिक्त कोई और नहीं है। तुम जो भी करोगे अपने ही लिए करोगे यही धर्म का सार है। कभी ऐसा न हो पंथों का निषेध करने में परमात्मा का ही निषेध हो जाए। साधु निंदा अपनी ही निंदा है एवं साधु की प्रशंसा स्वयं की प्रशंसा है। साधु और पंथ की निंदा करने में स्वयं का परमातम ही छूट जाए। उससे बचना है जो मंदिर में छिपा है। उसे बचाना है जो मूर्ति में छिपा है। उसे छिपाना है जो स्वयं में छिपा है। जीव की हिंसा स्वयं की हिंसा एवं जीव पर दया खुद की दया के समान है। इसीलिए संत प्रेमी आत्महितैषी पुरुष कभी किसी जाति-पंथ-संत की निंदा नहीं करता। जब भगवान का विचार होता है त...
कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा राखी का त्यौहार अपनी वृत्ति-प्रवृत्ति बदलने एवं राक्षसी वृत्ति त्यागने का पर्व है। हैवान मत बनो इन्सान बनो। माता-बहनों को बुरी नजर से बत देखो। माता-पिता और भारतीय संस्कृति की रक्षा करना तुम्हारा ही कर्तव्य है। हमें यह त्यौहार प्रेरणा देने आया है कि हमारा दूसरा जन्म हो सके। इस त्यौहार के तीन नाम हैं-श्रावणी पूर्णिमा, नारियली पूनम एवं रक्षाबंधन। इसे ब्राह्मणों का त्यौहार कहते हैं। ब्राह्मण का अर्थ जातिवाद नहीं बल्कि ब्रह्म का आचरण करने वाला होता है यानी ब्रह्म में रमने की भावना जाग्रत करने वाला। हमारे जीवन में चार त्यौहार आते हैं-रक्षाबंधन, दशहरा यानी क्षत्रियों एवं वीरों का त्यौहार, दीपावली अर्थात वैश्यों का त्यौहार एवं होली यानी शूद्रों का त्यौहार। यह त्यौहार रक्षा संदेश लेकर आया है कि तुम ऊर्जा पुरुष हो। तुम्हारे मे...