संयमरत्न विजय

फर्क देह में होता है आत्मा में नहीं: मुनि संयमरत्न विजय

चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में चातुर्मासार्थ विराजित मुनि संयमरत्न विजय व भुवनरत्न विजय माधवरम में आचार्य महाश्रमण जी से खमतखामणा करने पहुंचे। वहां मुनि संयमरत्न विजय ने ‘बड़ी दूर से चलकर आया हूं’ गीत पेश करने के बाद अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह  के तहत आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा सर्वधर्म के अनुयायी देह से भले भिन्न हो, लेकिन आत्मा से सभी समान है। देहधर्म से भी ऊंचा आत्मधर्म है। फर्क मिट्टी के दीपक में होता है, उसकी ज्योति में नहीं, वैसे ही फर्क देह में होता है, आत्मा रूपी ज्योति में नहीं। राग-द्वेष रूपी शत्रु को जीतने के कारण अरिहंत परमात्मा ‘जिन’ कहलाए और उनके अनुयायी ‘जैन’। ‘हिं’ यानी हिंसा और ‘दू’ यानी दूर अर्थात् जो हिंसा से दूर रहे वह ‘हिंदू’ है। जो सबको अच्छी सीख दे वह ‘सिख’ है। जो ब्रह्म अर्थात् अपनी आत्मा को जान ले वह  ब्राह्मण है। मुसल (नष्ट...

सत्य बोलने से तो कुछ भी नुकसान नहीं होता: मुनि संयमरत्न विजय

चेन्नई. साहुकार पेठ स्थित श्री राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा कि ज्यादा दान देने से धन कम होता है, शील का पालन करने से भोगों का वियोग होता है, तप करने से शरीर दुर्बल होता है, लेकिन सत्य बोलने से तो कुछ भी नुकसान नहीं होता। सत्य ही शिव है, सत्य ही सुंदर है, आज सत्य तो चला गया, मात्र सुंदर बनने में लगे हैं। सत्यवादी के समक्ष अग्नि शांत हो जाती है, समुद्र क्षुभित नहीं होता है, रोगों का समूह नष्ट हो जाता है। हाथियों की भयंकर श्रेणी निकट नहीं आती, सिंह शिथिल हो जाता है, सर्प भी उसके नजदीक नहीं आता तथा चोर व रणसंग्राम का भय तो तुरंत ही दूर चला जाता है। कीर्ति को कलंकित करने के लिए काजल के समान, विश्वास रूपी पृथ्वी को उखाडऩे के लिए हल के समान, अनेक प्रकार के अनर्थ रूपी वन को बढ़ाने के लिए मेघ समान, दुष्ट कार्यों की क्रीड़ा करने के लिए घर समान, सन्मान रूपी अंकुर को नष्ट करने क...

मोक्षलक्ष्मी की प्रिय सखी है दया: संयमरत्न विजय

चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा ज्ञानियों के कथनानुसार इंद्र का जैसे ऐरावत हाथी, विष्णु का गरुड़, धनद का पुष्पक विमान, महादेव का वृषभ (नंदी), कार्तिकेय का मयूर तथा गणपति का वाहन मूषक है, वैसे ही मोक्ष मार्ग की ओर जाने के लिए दया रूपी वाहन ही सर्वश्रेष्ठ है। दया रूपी कामधेनु जो हमेशा विविध प्रकार के स्वर्ण, मोती, प्रवाल, मणि तथा धन रूपी गोमय (गोबर) को देती है। श्वेत यश रूपी दूध देती है ऐसी दया रूपी कामधेनु नष्ट न हो, इस तरह हमें उसकी रक्षा करनी चाहिए। जो बुद्धिहीन मानव प्राणियों का वध करके धर्म की इच्छा रखता है, वह मानो पश्चिम दिशा से सूर्योदय, नमक में से मिठास, सर्प के मुख में से अमृत, अमावस से चंद्र, रात्रि से दिन, लक्ष्मी के संग्रह से दीक्षा की इच्छा रखता है। भव रूपी सागर को पार करने के लिए जहाज रूप, उत्तम बुद्धि रूपी वृक्षों के स्कंद रूप तथा ...

वैर से वैर कभी शांत नहीं होता: संयमरत्न विजय

साहुकार पेठ स्थित श्री राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने बारसासूत्र का सार बताते हुए कहा कि वैर से वैर कभी शांत नहीं होता, सिर्फ प्रेम से ही वैर शांत होता है। उन्होंने स्वरचित ‘देर क्यूं करता है अभी, आज कह दे प्रभु को सभी’ क्षमा का गीत गाते हुए कहा कि पापों से भरी हुई पोटली को प्रभु व गुरु चरणों में सौंपकर अपनी आत्मा को हल्की बना देना चाहिए। क्षमा मांगनी चाहिए, क्षमा देनी चाहिए, शांत रहना चाहिए। जो व्यक्ति क्रोध, मान, माया, लोभ व राग-द्वेष को शांत कर क्षमा-याचना करता है,उ सी की आराधना सार्थक होती है। अभिमान के कारण हम अपना अपराध स्वीकार नहीं कर पाते। हमारी आत्मा सब कुछ जानते हुए भी सत्य बोलने से कतराती है और भ्रम का भूत हटाने से घबराती है। प्रभु के पास प्रायश्चित करने से सब पाप मिट जाते हैं और भजन से सारे वजन सिर से हट जाते हैं। क्षमा रूपी जल से हमारा जीवन निर्मल हो जाता है। ...

संतान को सशक्त बनाने के लिए पांच वर्ष तक लालन-पालन करना चाहिए: संयमरत्न विजय

साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा अपनी संतान को सशक्त बनाने के लिए पांच वर्ष तक पुत्र का लालन-पालन करना चाहिए, जब दस वर्ष का हो जाए तो उसे नियंत्रण में रखना चाहिए तथा जब वह सोलह साल का हो जाए,तब उसके साथ मित्र जैसा बर्ताव करना चाहिए। जिस तरह हंसों की सभा में बगुले शोभायमान नहीं होते, वैसे ही विद्वानों की सभा में मूर्ख शोभायमान नहीं पाते। इसलिए वे माता-पिता वैरी और शत्रु हैं, जो अपनी संतान को सुसंस्कारों की शिक्षा से सुशिक्षित नहीं करते। पुत्र यदि दुराचारी है तो यह मां का दोष है, पुत्र यदि मूर्ख है तो पिता का दोष है, पुत्र यदि कंजूस है तो वंश का दोष है और पुत्र यदि दरिद्र है तो यह स्वयं पुत्र का ही दोष है। पर्यूषण पर्व क्षमापना पर्व के नाम से जाना जाता है। क्षमापना पराये को भी अपना बना देती है। प्रभु महावीर मातृ भक्त थे, माता-पिता का अपने प्रति मोह देखकर म...

मन की शुद्धि किए बिना धर्म करने वाला प्राणी भी मोक्ष नहीं जा सकता: संयमरत्न विजय

साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय के सान्निध्य में प्रभु महावीर का जन्मोत्सव मनाया गया। अपने हाथों में कांच पकड़ कर फिरता हुआ नेत्रहीन प्राणी जिस प्रकार अपना चेहरा नहीं देख सकता, वैसे ही मन की शुद्धि किए बिना धर्म करने वाला प्राणी भी मोक्ष नहीं जा सकता। मुक्ति रूपी स्त्री को वश में करने के लिए दूती के समान ऐसे मन की शुद्धि धारण करने की इच्छा यदि हमारे मन में हो तो कंचन-कामिनी (स्त्री) की ओर जाते हुए अपने मन-हृदय का रक्षण करना चाहिए, क्योंकि जिस तरह पत्थर की शिला पर कमल नहीं उगते वैसे ही लोभ व लाभ के चक्कर में पड़ेे जीव को आत्मधन की प्राप्ति नहीं होती। मन की शुद्धि होने पर ही जन-जन के मन में वर्धमान महावीर बसते हैं। यदि हमारी वाणी विकार रहित हो, नेत्र समता युक्त हो, पवित्र मुख पर उत्तम ध्यान की मुद्रा हो, गति मंद-मंद प्रचार वाली हो, क्रोध आदि का निरोध हो तथा वन म...

सज्जन पुरुषों का संग कीर्ति का मूल बोता है: मुनि संयमरत्न विजय

चैन्नई के साहुकारपेट स्थित श्री राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा  सज्जन पुरुषों का संग कीर्ति का मूल बोता है, पाप को नष्ट कर देता है, हर्ष उत्पन्न करता है, श्रम (थकान) को रोकता है, बुद्धि का वैभव उत्पन्न करता है, शत्रुओं का नाश करता है, कल्याण एकत्रित करता है, मनोहर बुद्धि देता है तथा भय को ढंकता है, इसी प्रकार सज्जनों की संगत कल्पवृक्ष की तरह हमेशा उत्तम फल देने वाली होती है।  पर्यूषण पर्व यानी आत्मशुद्धि का पर्व। पर्व हमें कुसंग से दूर रहकर हमेशा सत्संग करने की प्रेरणा देता है। जिस प्रकार राजा के ललाट पर लगा हुआ कीचड़ भी कस्तूरी के तरह प्रतिभाषित होता है, रानियों के आभूषणों में लगा हुआ कांच भी हीरे की उपमा को प्राप्त होता है और आम के वृक्ष पर बैठा हुआ कौआ भी कोयल की तरह दिखता है, तो इसके पीछे एक ही कारण है उत्तम स्थान संग। इसी तरह गुणहीन मानव भी उत्तम जीवों के संग से ग...

यात्रात्रिक यानी परमात्मा की भक्ति: मुनि संयमरत्न विजय

साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने पर्यूषण के दूसरे दिन वार्षिक 11 कर्तव्य समझाते हुए कहा जो कर्तव्य पथ पर चलता हुआ ठोकरें नहीं गिनता, वह एक दिन ठाकुर बन जाता है।  स्वरूप अ_ाई महोत्सव करना। नगर के समस्त जन धर्म से प्रभावित हो ऐसी रथयात्रा निकालना, आत्मशुद्धि के साथ सिद्धिकरण हो, स्नात्र महोत्सव यानी विधि-अर्थ-भावपूर्वक प्रभु की पूजा-भक्ति करना, देवद्रव्य वृद्धि अर्थात नीतिपूर्वक कमाई हुई लक्ष्मी का सदुपयोग प्रभु-भक्ति में करना। अष्ट कर्म के आवरण का अनावरण करने के लिए इस पर्व का आगमन होता है। ईहलोक व परलोक कल्याणकारक, कर्म के मर्म को समझाकर निर्मल आत्मधर्म की ओर ले जाने वाला यह पवित्र पर्व है। संघपूजा यानी संघ की पूजा तीर्थंकरों की पूजा के समान है। साधर्मिक भक्ति अर्थात श्री संभवनाथ परमात्मा ने पूर्व के तृतीय भव में साधर्मिक भक्ति करके तीर्थंकर पद को प्राप्त कर...

व्रत रूपी आभूषण से विभूषित होने का अवसर ही पर्यूषण: संयमरत्न विजय

साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में  मुनि संयमरत्न विजय ने व्रत रूपी आभूषण से विभूषित होने का अवसर ही पर्यूषण है। यह पर्व हमें अपने कर्तव्य पथ पर चलने का संदेश देता है। मानव भव ही एक ऐसा भव है, जिसमें मानव कुछ कर सकता है, बाकी नरक, तिर्यंच व देव गति में तो टाइम पास के अलावा कुछ नहीं। पर्यूषण पर्व के पहले दिन कहा जो हमारे आत्म प्रदूषण, कषाय दूषण व कर्मों की उष्णता दूर कर दे, वास्तव में वही पर्यूषण है। अध्यात्म के महल में चढऩे की प्रथम सीढ़ी है-‘अमारि प्रवर्तन’ अर्थात् अहिंसा का पालन करना और करवाना। नीचे देखकर चलने से जीव जंतुओं की रक्षा होती है, ठोकर नहीं लगती और पढ़ी वस्तु भी मिल जाती है। दया धर्म का पालन करने से हमारा हृदय कोमल होता है, परिणाम स्वरूप हृदय रूपी धरती पर हम साधार्मिक भक्ति, क्षमापना, त्याग, तपश्चर्या आदि के बीज बो सकते हैं। धर्म का मूल ही दया है और बिना मूल के तो ...

बुद्धि की समृद्धि दूर कर देती है चुगली

साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में  विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा यदि हम पापों को नष्ट व शत्रु को परास्त करना चाहते हैं, क्लेश को लेशमात्र भी रखना नहीं चाहते, सर्व अपराधों व अपकीर्ति से दूर होना चाहते हैं तथा अगले भव में लक्ष्मी प्राप्त करना चाहते हैं तो अपने मन में चुगली को मत आने दो। जैसे अग्नि में कमल, सर्प की जिह्वा में अमृत, पश्चिम दिशा में सूर्य का उदय, आकाश में फसल, पवन में स्थिरता तथा मारवाड़ में कल्पवृक्ष नहीं होता, वैसे ही दुर्जनता में चंद्र जैसे उज्ज्वल यश की प्राप्ति नहीं होती। जो मानव चुगली करता हुआ सौभाग्य चाहता है, वह मानो बिना परिश्रम के संपदा, कलह करता हुआ कीर्ति, प्राणियों के प्राण लेकर पुण्य, लज्जा रखकर नृत्य करना, अभक्ष्य भोजन करके निरोगता व निद्रा लेता हुआ विद्या प्राप्त करना चाहता है जो असंभव है। चुगली करने वाला धर्म की गली को तोड़ देता है, बुद्धि की समृद्धि दूर क...

कम समय में दम का कार्य कर गए तरुणसागर जी: संयमरत्न विजय

साहुकार पेठ स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित आचार्य संयमरत्न विजय कोंडीतोप में विराजित आचार्य पुष्पदंतसागर  के क्रांतिकारी शिष्य तरुणसागर को श्रद्धांजलि- अर्पित करने पहुंचे। मुनि संयमरत्न ने कहा कि आज तक हमनें तरु पर पुष्प खिलते देखें है, लेकिन यहां पर तो स्वयं पुष्प (पुष्पदंतसागर) ने तरु (तरुणसागर जी) को प्रकट किया है। वे छोटी सी जिंदगी में बहुत बड़ा जीवन जीकर गए, कम समय में दम का कार्य कर गए। राष्ट्रसंत तरुणसागर ने अपने तपोबल,चिंतनबल से लाखों लोगों को ज्ञान का अमृत प्रदान किया है। शांति बाई के लाल होकर इन्होंने शांति के साथ नहीं,बल्कि क्रांति के साथ प्रवचन दिए। पवन नामक बालक ने अंत समय तक तरुण बनकर अपनी तरुणाई के साथ पवन की तरह निरंतर गतिशील रहकर सद्गति की ओर महाप्रयाण किया है। इनकी सहज-सरल भाषा जीवन की एक नयी परिभाषा बन गई। तरु की तरह अपने चिंतन रूपी फल-फूल व छाया जगत को दे गए। इस अवसर प...

पूजा करने से उपसर्ग-कष्ट नष्ट हो जाते हैं: संयमरत्न विजय

साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहाबइष्ट की पूजा करने से उपसर्ग-कष्ट नष्ट हो जाते हैं, विघ्नों की बेल छिन्न-भिन्न हो जाती है और प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। प्रसन्न चित्त से की गई पूजा ही अखंड होती है। सूर्य जैसे प्रकाश पुंज को नहीं छोड़ता, वैसे ही स्नेह उसे नहीं छोड़ता, जो वीतराग परमात्मा की पूजा करता है। चांदनी जैसे चंद्रमा के संग रहती है, वैसे ही कल्याण रूपी लक्ष्मी उसके साथ रहती है, राजा के पीछे जैसे सेना वैसे ही सौभाग्य उसके समीप आता है और युवा पुरुष को जैसे स्त्री, वैसे ही स्वर्ग और मोक्ष रूपी लक्ष्मी उसे चाहती है। जिनेश्वर देव की पूजा करने वालों की पुण्यवान लोग स्तुति करते हैं। राजाओं के समूह उसके समक्ष हाथ जोड़ खड़े रहते है। अपार प्रसिद्धि वह प्राप्त करता है। साथ ही चित्त की पीड़ा को हरने वाली उसकी कीर्ति सर्वत्र फैलने लगती है, कुल की शोभा बढ़ाने ...

  • 1
  • 2
Skip to toolbar