आचार्य महाश्रमण

अपने धर्म के प्रति निष्ठावान रहें: महाश्रमण

चेन्नई. धर्मगुरु अपने धर्म के प्रति निष्ठावान होने चाहिए। उन्हें अपने धर्म और ग्रंथों पर श्रद्धा होने के साथ ही उनको यथार्थ बोलना चाहिए। धर्मगुरु यथार्थवादी होंगे तो ही उनके प्रति लोगों का विश्वास जमा रह सकता है। उनमें मेधा भी होनी चाहिए। मेधा शक्ति होती है तो धर्मगुरु अपने धर्म और उसका अनुपालन करने वालों का विकासकर्ता बन सकते हैं। माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा दुनिया में अनेक धर्म संप्रदाय हैं। भारत में भी विभिन्न धर्म संप्रदायों के लोग निवास करते हैं। सभी धर्मों के धर्मगुरु भी होते हैं और जनता पर उनका प्रभाव भी होता है। वे जनता को उद्बोध प्रदान करते हैं तो जनता भी उनके बताए मार्ग पर गति करने का प्रयास करती होगी। आचार्य ने कहा धर्मगुरु में बुद्धि सम्पन्नता भी होनी चाहिए। बुद्धि सम्पन्न धर्मगुरु कोई निर्णय स्वयं द्वारा भी ले सकते हैं अन्यथा दूस...

संयम की प्रेरणा का मार्ग हैं अणुव्रत : आचार्य महाश्रमण

अणुव्रत का अर्थ है – छोटे छोटे व्रत, संकल्प, नियम| सब बड़े नियमों को स्वीकार कर लें, यह कठिन है| महाव्रतों में बड़े बड़े व्रतों की संयोजना है। पूर्ण अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह की परिपालना हैं, महाव्रत| पर यह यदि न हो सके तो हम ऐसे ही क्यों रहें? क्यों न छोटे-छोटे व्रतों को स्वीकार करके अपने पर अपना अनुशासन कर लें, उपरोक्त विचार माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के अन्तर्गत साम्प्रदायिक सौहार्द दिवस के आयोजन के अवसर पर धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहे|   आचार्य श्री ने आगे कहा कि व्यक्ति अपने जीवन विकास के लिए अणुव्रत के नियमों को अपनाए, संकल्प करें, जैसे मैं किसी निरपराध प्राणी की हत्या नहीं करूंगा| शराब, गुटका, सिगरेट आदि का परिहार करके बड़ा झूठ, धोखाधड़ी व मिलावट नहीं करूंगा|   आचार्य श्री ने आगे कहा कि जैन धर्...

मृत्यु के पश्चात् आदमी कोई भी परिग्रह लेकर नहीं जाता: महाश्रमण

चेन्नई. माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा आदमी को यह सोचने का प्रयास करना चाहिए कि धन, संपत्ति, भौतिक सुख-सुविधाएं सब यहीं रह जाएंगी। मृत्यु के पश्चात् आदमी कोई भी परिग्रह लेकर नहीं जाता। उसके साथ जाता है तो उसके द्वारा किए हुए कर्मों का फल। उसके साथ आगे केवल उसका धर्म ही जाता है। आदमी को अपने धर्म के टिफिन को तैयार रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को समय रहते धर्म की कमाई करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए उसे ध्यान, साधना और स्वाध्याय आदि के माध्यम से धर्मार्जन करने की कोशिश करनी चाहिए। बारह देवलोकों में चौथा देवलोक माहेन्द्र देवलोक होता है। इसमें केवल देवता ही होते हैं। देवलोक में जाने वाले प्राणी मानो कोई विशेष धर्म-साधना करने वाले होते हैं। इस देवलोक में उत्पन्न होने वाली आत्मा का सबसे जघन्य आयुष्य दो सागरोपम का होता है। इसमें पैदा होने वाला क...

निर्जरा के मुख्यत: तीन माध्यम: आचार्य महाश्रमण

जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ माधवरम के महाश्रमण समवसरण में आचार्य महाश्रमण कहा कि समाधि के द्वारा साधु समाधिस्थ रह सकता है। निर्जरा के मुख्यत: तीन माध्यम बताए गए हैं-स्वाध्याय, सेवा और अनाहार की तपस्या। साधु को इनमें से कोई न कोई हमेशा अपने पास रखने का प्रयास करना चाहिए। तीनों में से किसी को भी अपना मुख्य माध्यम बनाकर कर्मों की निर्जरा कर आत्मा को निमर्ल बनाने का प्रयास करना चाहिए। तपस्या में बहुत गुण होते हैं। तपस्या केवल निर्जरा की भावना की जानी चाहिए। तपस्या में भौतिक चीजों की कामना नहीं करने का प्रयास करना चाहिए। वर्तमान में लोग अनाहार (आहार का त्याग) को ही तपस्या कहते हैं। मुख्यमुनि महावीकुमार ने ‘सुरंगों शील सजो’ गीत का  संगान किया। उसके बाद आचार्य महाश्रमण ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ के 25वें भव राजर्षि नन्दन के भव का वर्णन करते हुए कहा कि एक समय ऐसा आया जब राजा नंदन राजर...

भावना हो तो परिवार में बिखराव नहीं प्रेम हो सकता है: आचार्य महाश्रमण

माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ के अंतर्गत त्रिपृष्ठ भव की घटनाओं पर प्रकाश डालते हुए कहा आदमी के जीवन में व्यवहार का बहुत महत्व होता है। भावना हो तो परिवार में बिखराव नहीं प्रेम हो सकता है। सद्व्यवहार से परिवार में सुख-शांति का माहौल कायम हो सकता है। जहां परस्पर सहयोग, व्यक्तिगत स्वार्थ की बात न हो उस परिवार में मानो सुख का पारावार आ सकता है। वह सबसे सुखी परिवार हो सकता है। उन्होंने कहा माना महाव्रत का बहुत ऊंचा राजमार्ग है लेकिन इस पर चलना सबके लिए मुश्किल हो सकता है इसलिए सामान्य आदमी छोटे-छोटे संकल्पों के द्वारा भी अपने जीवन को आध्यात्मिक गति दे सकता है। कोई आगंतुक आ जाए तो उसका सम्मान करने का प्रयास करना चाहिए। आगंतुकों का यथोचित सत्कार व सम्मान किया जाना चाहिए। समुचित सम्मान का व्यवहार हो, उदारतापूर्ण व्यवहार ह...

कटु नहीं मिष्ठभाषी बनें: आचार्य महाश्रमण

विचारों के आदान-प्रदान का सशक्त माध्यम भाषा होती है। भाषा लिखित भी होती है तो मौखिक भी होती है। बोलना होता है। आदमी मौन भी कर लेता है और बोल भी लेता है, वह कोई खास बात नहीं होती है, किन्तु आदमी बोलते हुए भी मौन कर ले, वह विशेष बात होती है। बोलना कोई बड़ी बात नहीं विवेकपूर्ण बोलना बड़ी बात होती है। माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा के क्रम में मरीचिकुमार के भव सहित सभी सोलहवें भव तक की कथा का वर्णन करते हुए यह कहा। ‘वाणी संयम दिवस पर आचार्य ने कहा कि वाणी एक महत्वपूर्ण तत्व है। आदमी को कटु नहीं मिष्ठभाषी बनने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपनी वाणी को संयमित रखते हुए कठोर अथवा कटु भाषा बचने का प्रयास करना चाहिए। वाणी में विनय हो, वह मिष्ठ हो। भाषा में अच्छे शब्दों का प्रयोग हो तो वाणी और भी सुन्दर बन सकती है।...

साधु को तो सावद्य योग का जीवनभर के लिए त्याग होता है: आचार्य महाश्रमण

माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में पर्यूषण पर्व के तीसरे दिन को सामायिक दिवस रूप में मनाया गया। इस मौके पर आचार्य महाश्रमण ने कहा साधु को तो सावद्य योग का जीवनभर के लिए त्याग होता है। श्रावक को अल्पकालिक सावद्य योग जबकि साधु को पूर्णकालिक सावद्य योगों का त्याग होता है। सामायिक समता की आय वाला उपक्रम हो। आदमी को यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि शादी समारोह का अवसर भी शनिवार को है और शादी में देर है तो शादी के मण्डप और आसपास भी सभी स्वजनों के साथ सामूहिक रूप में सामायिक की जा सकती है। इस प्रकार शादी का मण्डप भी सामायिक का मंडप हो सकता है। ऐसा हो तो कितनी अच्छी बात हो सकती है।  सामायिक में गृहस्थ भी साधु जैसा ही बन जाता है। जैसे साधु के मुखवस्त्रिका होती है और गृहस्थ के भी मुखवस्त्रिका होती है। वस्त्र, वेशभूषा के हिसाब से दोनों में कुछ समानता होती है। इतना ही नहीं, सावद्य योगों के...

राजनीति के साथ धर्मनीति से होता उत्थान : आचार्य श्री महाश्रमण

माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के दूसरे स्थान के 448वे सूत्र का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि दो चक्रवर्ती ऐसे हुए हैं जिन्होंने काम-भोगों का परित्याग नहीं किया और मृत्यु के बाद सातवें नरक लोक में अप्रतिष्ठित नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए| वर्तमान अवसर्पिणी काल में १२ चक्रवर्ती हुए| इनमें से दो चक्रवर्ती सुभूम और ब्रह्मदत जो की क्रमशः आठवें और बारहवें चक्रवर्ती थे! जो अंतिम समय में साधना नहीं करने के कारण मृत्यु के बाद सातवीं नरक में गये| आचार्य श्री ने आगे कहा कि चक्रवर्ती एक सत्ताधीश व्यक्ति होता है| दुनिया में चक्रवर्ती से बड़ा और कोई सत्ताधीश नहीं होता| चाहे वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति भी क्यों न हो| प्रभुत्व के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान, छः खण्ड के अधिपति होते हैं, चवदह रत्नों के स्वामी होते हैं| पहले भरत , आठवें सुभूम और बारहवें ब...

ज्ञान की गंभीरता, आचरणों की ऊँचाई सम्पन्न बने मनुष्य: आचार्य श्री महाश्रमण

माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सुत्र दूसरे अध्याय के 447वें श्लोक का विवेचन करते हुए कहा कि मनुष्य क्षेत्र के बीच में दो तरह के समुन्द्र है – लवण और कालोद| जैन भुगोल के आधार पर हम जहां रहते हैं, वह जम्बू द्वीप हैं| इसको चारों ओर वलयाकार में समुन्द्र है, उसका नाम है लवण समुंद्र| उसके बाद एक द्वीप आता है, उसका नाम है धातकी खण्ड| उसके चारों ओर एक समुद्र हैं कालोदधि (कलोद) समुन्द्र| उसके बाद पुष्कर द्वीप, फिर समुन्द्र, इस तरह असंख्य समुन्द्र और द्वप हैं|    आचार्य श्री ने आगे कहा कि हम मनुष्य अढ़ाई द्वीप (पन्द्रह कर्म भूमि) – पांच भरत, पांच ऐरावत, पांच महाविदेह, इन पन्द्रह कर्म भूमियों में मनुष्य होते हैं, उन्हीं में से फिर साधु होते हैं, तीर्थकर होते हैं|      आचार्य श्री ने आगे कहा कि *सिद्ध चन्द्रों से भी ज्यादा निर्मल है, सूर्यों से भी ज्यादा प्रकाशक...

शीतलता गुस्से का विलोम अर्थ देने वाला होता है: आचार्य महाश्रमण

माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में आचार्य महाश्रमण ने कहा शीतलता गुस्से का विलोम अर्थ देने वाला होता है। चन्द्रमा के शीतलता से आदमी को गुस्से से मुक्त होने तथा शांति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। प्रेक्षाध्यान में भी ज्योति:केन्द्र पर चन्द्रमा का ध्यान करने का वर्णन है। दो तीर्थंकर चन्द्रमा के समान गौरवर्ण वाले हुए। आठवें तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी और नौवें तीर्थंकर भगवान पुष्पदंत स्वामी।चन्द्रमा में तीन विशेषताएं होती हैं। पहली विशेषता होती है कि वह शीतल होता है। चन्द्रमा का दूसरा गुण यह है कि वह निर्मल होता है। चन्द्रमा से भी निर्मलतर सिद्ध होते हैं। चन्द्रमा के निर्मलता के गुण से मनुष्य अनासक्ति की चेतना जागृत करने का प्रयास कर सकता है। आदमी को परिवार में रहते हुए भी अनासक्ति का भाव रखने का प्रयास करना चाहिए। चन्द्रमा का तीसरा गुण है प्रकाशवत्ता। इससे आदमी क...

मूर्छित चेतना आदमी को कुपथ की ओर भी आगे बढ़ता है: आचार्य महाश्रमण

माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में विराजित आचार्य महाश्रमण ने बुधवार को कहा की चेतना मूर्छित बन जाती है जिससे आदमी कुपथ की ओर भी आगे बढ़ सकता है। आचार्य ने ‘ठाणं’ आगमाधारित प्रवचन में कहा द्वेष प्रत्यया मूर्छा के दो भेद बताए गए हैं-गुस्सा और अहंकार। द्वेष के कारण आदमी गुस्सा ही नहीं अहंकार भी कर लेता है। गुस्सा और अहंकार करने से आदमी की चेतना मूर्छित हो जाती है। अहंकार में आया व्यक्ति किसी अन्य का ध्यान नहीं रखता। वह अहंकार में स्वयं का भला भी नहीं सोच पाता। जब आदमी के अहंकार को कोई ठेस लगती है तो आदमी गुस्से में आ जाता है। इस प्रकार गुस्से और अहंकार का जोड़ा है। अहंकार करने वाला गुस्से में जा सकता है और गुस्सा करने वाला अपना ही नुकसान कर सकता है। नमस्कार गुस्से का अंत करने वाला है। नमस्कार महामंत्र में ‘णमो’ के द्वारा मानो बार-बार अहंकार पर चोट पहुंचाई जाती है। प्रेक्षाध...

ज्ञानयुक्त आचरण होता है फलवान: आचार्य महाश्रमण

जैन विद्या कार्यशाला हुई प्रारम्भ चेन्नई. ठाणं सूत्र में दूसरे स्थान में धर्म के दो प्रकार बताए गए हैं -श्रुत धर्म, चारित्र धर्म| वैसे धर्म के अनेक वर्गीकरण किए जा सकते हैं, उनमें एक वर्गीकरण हैं ज्ञान धर्म और आचार धर्म! आचार का पालन तब सही हो सकता है, जब वह ज्ञानपूर्वक होता है| ज्ञान विहीन चारित्र का पालन, चारित्र विहीन ज्ञान दोनों अधुरे होते हैं| उपरोक्त विचार माधावरम् स्थित महाश्रमण समवसरण में श्रावक समाज को संबोधित करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण जी ने कहे| आचार्य श्री ने आगे कहा कि कुछ लोग जानते हैं लेकिन आचरण करने में समर्थ नहीं होते, कुछ लोग आचरण करने में समर्थ होते पर कैसे क्या करना चाहिए यह ज्ञान नहीं होता है| ज्ञानपूर्वक आचार का पालन करनेवाले विरले ही होते हैं| गुरु के श्री मुख से निकलने वाली वाणी को सुनकर ज्ञान हो जाना श्रुत धर्म के अंतर्गत आता है| आचार्य श्री ने आगे कहा कि प्राची...

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