नार्थ टाउन में विराजमान गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि गृहस्थ के पांच समिति तीन गुप्ति का निर्देश नहीं है पर विवेक पूर्वक प्रवृत्ति करने व 12 व्रत का पालन करने से उनकी भी संयम आराधना होती है। दो प्रकार के परिग्रह होते है । 9 बाह्य परिग्रह होते है।
साधन प्राप्त होने पर भी यदि बिना आसक्ति के उनका भोग किया जाये तो केवल ज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति हो सकती है। भिखारी के पास कुछ नहीं है फिर भी वे परिग्रही है उसकी इच्छाएँ अनन्त है, कामनाएं है, आसक्ति है इसलिए वे अपरिग्रही नहीं है। 14 प्रकार के आभ्यन्तर परिग्रह है। जहाँ कर्म बन्ध है वहाँ परिग्रह है। सबसे ज्यादा पाप परिग्रह से होते है यदि परिग्रह छूट गया आसक्ति छूट गई तो पाप का सेवन अपने आप छूट जाता है।
इसलिए बाह्य के साथ आभ्यन्तर परिग्रह का भी त्याग करना चाहिए जिस धर्म में हिसां को हिसां पाप को पाप माना जाये वो ही सम्यक धर्म है। गृहस्थ इन परिग्रहों का त्याग नहीं कर पाते है इसलिए इनकी मर्यादा करते है। जिससे धीरे-2 भी अपरिग्रही हो कर पंडित मरण को प्राप्त हो सकते है। पूरा संसार 40 हजार किलोमीटर के अर्न्तगत है। इस प्रकार 10 प्रकार की दिशाओं की मर्यादा के साथ दिशा व्रत का त्याग करवाया गया । पच्चखाण कराया गया साथ ही पांचवे व्रत परिग्रह का भी पच्कखाण कराया गया ।