जैन संत डाक्टर राजेन्द्र मुनि जी ने भक्ति के महत्व का प्रतिपादित करते हुए कहा कि जिस कार्य में भक्ति भावना मिल जाती है वह साधारण वस्तु भी असाधारण रूप ग्रहण कर लेती है! मुनि जी ने सुदामा के चावलो का उदाहरण देते हुए कहा कि अपने बाल मित्र श्री कृष्ण को देख कर हर्ष से विभोर होकर मित्रवत व्यवहार करता हुआ चावलो का आहार देता है, भगवान श्री कृष्ण भी उसे महाप्रसाद समझकर सहर्ष ग्रहण कर लेते है! भगवान राम के जीवन में शबरी भीलनी का वर्णन आता है श्री राम बड़े बड़े ऋषियों के आश्रम को छोड़ कर शबरी के झोपड़े पर पधार जाते है! भक्तिवश मान भूलकर झूठे बेर श्री राम को ग्रहण करने हेतू प्रदान करती है एवं श्री राम भी उसे आनंदित मन से ग्रहण करके प्रसन्नता व्यक्त करते है!
वास्तव में भक्ति वही सफल सार्थक होती है जिसमें भावना का प्रवाह हो! वर्तमान समय में भक्ति का बाहरी रूप चमक दमक सजावट मंदिरो में नजर आता है किन्तु भक्त के मन में भावों की जितनी शुद्धता होनी चाहिए वह नजर नहीं आ पाती परिणाम स्वरूप उसका उतना असर भी कम होता है!
जो हृदय पूर्वक भक्ति की जाती है वही अमृत बनती है!मीरा की भक्ति ने जहर को भी अमृत रूप प्रदान कर दिया, जो जहर मरण का कारण था वही अमरता का कारण बन जाता है! भगवान महावीर के जीवन में भी चन्दनबाला के द्वारा दिए उड़द के बाकूलों का वर्णन है जो साधारण भोजन था पर महावीर के लिए संकलप पूर्ति के कारण बन गए! सभा में साहित्यकार सुरेन्द्र मुनि जी द्वारा प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के जीवन प्रसंग सुनाए गए जिन्होंने धर्म की आदि के साथ संघ समाज का भी शुभारम्भ कर कृषि मसी कला का प्रारम्भ किया एवं साधना को अपना कर अपना आत्म कल्याण भी कर लिया! महामंत्री उमेश जैन द्वारा संघ की सूचनाएं व स्वागत सम्पन्न किया गया!