चेन्नई. टी.नगर में बर्किट रोड स्थित माम्बलम जैन स्थानक में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा भगवान महावीर को अपने जीवनकाल में अनेक उपसर्गों का सामना करना पड़ा। वे इन उपसर्गों से तनिक भी विचलित नहीं होकर धैर्यपूर्वक उनका सामना किया।
वे जानते थे कि ये उपसर्ग उनके द्वारा किए गए कर्मों का फल है इसलिए उन्होंने उनसे बचने का कभी प्रयास भी नहीं किया। विपदाओं के माध्यम से ही कर्मों से किनारा किया जा सकता है। महापुरुषों ने कहा है कि हर परिस्थिति में समभाव रखना अत्यावश्यक है।
साधारणतया सुख की घडिय़ों में जीव फूला नहीं समाता। उसकी धारणा बन जाती है कि जीवन में प्राप्त सुख उसी के द्वारा उपार्जित हैं। इसके विपरीत कष्टों के लिए दूसरों को दोषी ठहराने का प्रयास करता है।
उन्होंने दुख व सुख के लिए हवा में लहराते हुए ध्वज का उदाहरण देकर बताया कि हवा में लहराता हुआ ध्वज कभी-कभी अपने स्तम्भ से लिपट जाता है और कुछ समय बाद हवा के माध्यम से वह फिर लहराने लगता है।
ध्वज का स्तम्भ से लिपट जाना और फिर से लहराना कर्म क्षय के समान है। अपने कर्मों का बोध व्यक्ति को कभी भी अवश्य होता है मगर पश्चाताप से कर्ममुक्त होना असंभव है। उनको भोगना ही पड़ता है। मुनि जयकलश ने गीतिका पेश की। संचालन मंत्री महेंद्र गादिया ने किया।