किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने कषायों के त्याग का निवारण करने के चार उपाय बताए। पहला उपाय है कषायों के नुकसान भुगतने वाले उदाहरण को याद रखो। दूसरा उपाय कषायों को दूर करने की आत्मा चिंता होनी चाहिए। तीसरा क्रोध करने में देरी करना यानी क्रोध भी शांति से करना। चौथा उपाय है जब कषाय किया, उसका प्रायश्चित गुरु भगवंत के पास से तुरंत ले लेना। उन्होंने कहा पाप का बंध करना हमारे हाथ में है परंतु पाप का उदय समय के हाथ में है।
मम्मण सेठ जैसे दिखता त्यागी व्यक्ति का जीव भी लोभ कषाय के कारण सातवीं नरक में गया। ज्ञानी कहते हैं लोभ से सर्वनाश होता है। लोभ की दुनिया में जाने वाले माता-पिता, शरीर आदि को भी नहीं देखते। कर्मसत्ता हमें छोड़ती नहीं है परंतु साथ में धर्मसत्ता होने से अपना बचाव हो सकता है। हम निर्धार करें, कौनसा कषाय हमें ज्यादा तकलीफ देता है। उन्होंने कहा जब क्रोध आए तब सात नवकार कर लूंगा, ऐसी युक्ति सोच लेनी चाहिए।
आचार्य भगवंत ने कहा हमें सुबह उठकर प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु! आपकी क्षमा का एक अंश मुझे दे दो। मुझे क्रोध नहीं करना है, ऐसा रोजना सात या नौ बार लिखना चाहिए। जब क्रोध आए तो कमरे में बंद होकर अंदर चिल्लाना शुरू कर देना चाहिए। दर्पण के सामने खड़े होकर बोलना शुरू कर देना या रिकॉर्डिंग कर लेना चाहिए और बाद में सुनना चाहिए, तब ख़ुद पर ही शरम आएगी। उन्होंने कहा आत्मा का स्वभाव 48 मिनट से ज्यादा नहीं टिकता। हमें संसार की क्षणभंगुरता को पहचानना है। अपने मन के ऊपर थोड़ा भी विश्वास मत रखो।
मन गिरगिट की तरह बदलता है। गुरु हमारे लिए साक्षात् भगवान है, उनके ज्ञान पर श्रद्धा करके आगे बढ़ो। क्रोध करने वालों का महत्व तब बढ़ता है जब वह अल्प या कम घनत्व वाला क्रोध करता है। उन्होंने कहा एक वस्तु में अनेक धर्म है। कई बार इरादा अच्छा है तो पाप करना भी पड़े तो ठीक है। विवेक युक्त धर्म ही मोक्ष का कारण है। अभी हम कर्मात्मा है, हमें धर्मात्मा बनना है। हम शरीर और आत्मा को अलग मानते हैं। हमें जिस चीज से लेना देना नहीं है, फिर भी उस चीज का ममत्व करते हैं। ममत्व भाव अध्यात्म को ऊंचाई से नीचे लेकर आ जाता है।
कषाय हमारा स्वभाव नहीं था, फिर भी आत्मा और शरीर को एक मानकर हमने वह स्वभाव बना लिया। ज्ञानी कहते हैं कषाय आत्मा से कभी नहीं आते, ये अपने व्यवहार से और सत्य और असत्य में अंतर करने से पैदा होते हैं। हम औरों को सिर्फ क्रिया के आधार पर देखते हैं, वह अधूरा सम्यक् है। सम्यक् का अर्थ है संपूर्ण यानी श्रद्धा का अभाव न रहना, श्रद्धा अखंड, प्रशस्त रहना। हमें शास्त्रों की लाइन और गुरु की गाइडलाइन समझने की आवश्यकता है।