किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा परमात्मा के तीसरे संभवनाथ के स्तवन में बताया गया है कि हमें परमात्मा की सेवा करनी चाहिए लेकिन उसके लिए पात्रता की जरूरत होती है।
जिनकी सेवा में एक लाख देव तत्पर रहते हैं यदि उनकी सेवा करनी है तो योग्यता तो चाहिए। इसके लिए तीन प्रकार की भूमिका जिस साधक में रहती है वही योग्य होता है। पहली भूमिका अनादि काल से चित्त में रहे दोषों को दूर करना।
आज संसार के सब प्राणियों में भय व्याप्त है, चित्त स्थिर भयमुक्त होने पर ही बन सकता है। चित्त की प्रसन्नता हो तभी आप परमात्मा की सेवा कर सकते हैं। मन में उद्वेग है तो यह संभव नहीं है।
अखेद यानी सेवा साधना करते समय अन्दर खेद पैदा न हो। जब तक कार्य की सिद्धी न हो हमारा उत्साह बना रहना चाहिए। सेवा साधना को आगे बढाओ एक दिन सिद्धी जरुर मिलेगी। उत्साह भंग होने के बाद सिद्धी संभव नहीं है। हमें हमारे जीवन में आत्मनिरीक्षण करना है कि चित्त में कषाय तो भरा नहीं है।