श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन संघ में धर्म प्रवचन देते हुए पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने कहा कि अहंकार स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानने के कारण उत्पन्न हुआ एक व्यवहार है। यह एक ऐसा मनोविकार है जिसमें मनुष्य को न तो अपनी त्रुटियां दिखाई देती हैं और न ही दूसरों की अच्छी बातें। शांति का शत्रु है अहंकार। जब अहंकार बलवान हो जाता है तब वह मनुष्य की चेतना को अंधेरे की परत की तरह घेरने लगता है। जिस प्रकार नींबू की एक बूंद हजारों लीटर दूध को बर्बाद कर देती है उसी प्रकार मनुष्य का अहंकार अच्छे से अच्छे संबंधों को भी बर्बाद कर देता है।
हमारे मनीषियों ने अहंकार को मनुष्य के जीवन में उन्नति की सबसे बड़ी बाधा माना है। अहंकारी मनुष्य परिवार और समाज को अधोगति की ओर ले जाता है। इसके विपरीत संस्कार मनुष्य को पुनीत बनाने की प्रक्रिया है। श्रेष्ठ संस्कार हमें मन, वचन, कर्म से पवित्रता की ओर ले जाते हैं। ये हमारे मानसिक धरातल को दिव्य प्रवृत्तियों से अलंकृत करते हैं। इससे मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व में उत्कृष्टता आती है। श्रेष्ठ संस्कारों से ही मनुष्य परिवार और समाज में यश एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। हमारे शास्त्रों में श्रेष्ठ संस्कारों को मनुष्य की सर्वोपरि धरोहर कहा गया है। इस धरोहर को सहेजना आवश्यक होता है। उन्होंने आगे कहा कि अहंकार मनुष्य की मानसिक एकाग्रता एवं संतुलन को भंग कर देता है।
अहंकारी व्यक्ति सदैव अशांत ही रहता है। वहीं संस्कार हमारे अंत:करण को दिव्य गुणों से विभूषित करते हैं। संस्कार हमें प्रबुद्ध मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। रावण, कंस, सबके अहंकार की परिणति दयनीय मृत्यु के रूप में हुई। संस्कार हमारी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति का आधार स्तंभ हैं। ये मनुष्य को सदा ही पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करते हैं। हमारी स्वर्णिम संस्कृति श्रेष्ठ संस्कारों पर ही अवलंबित है। अंत में आचार्य श्री ने कहा कि हम अपने भीतर छुपे अहंकार के अंधेरे को जीत लें तो यह संसार अपने आप स्वर्ग सरीखा हो उठेगा। उसमें न कोई छोटा होगा, न कोई बड़ा। न कोई निर्धन होगा, न कोई धनी। न कोई राजा होगा, न कोई रंक! सभी अपनी-अपनी कर्मयात्रा में लीन रहकर ही जीवन का सच्चा सुख भोग सकेंगे।