कोडमबाक्कम वडपलनी चेन्नई श्री जैन भवन के प्रांगण मे प.पू.सुधाकवरजी आदि ठाणा 5 के मुखारविंद से धरमसभा में अंतकृत दशांग सूत्र का वाचन करते हुए फरमाया कि राजा कोणिक अपने पिता श्रेणिक राजा को कारागृह में डालकर हर रोज 100 कोड़े बरसाता था। अपनी माता चेलना से आशीर्वाद लेने के लिए जाता है तब महारानी चेलना पश्चाताप करती है कि “मैंने तुझे उसी समय गर्भ में ही समाप्त क्यों नहीं कर दिया जब मुझे तेरे पिता के कलेजे के मांस खाने की इच्छा हुयी! लेकिन उसके बाद में भी उन्होंने तुम्हें जन्म देने की इजाजत दी और तुम्हारा लालन-पालन किया! पश्चाताप से ग्रसित कोणिक जब फरसा लेकर अपने बाप के हथकड़ियों को तोड़ने के लिए जाता है तो उसके हाथ में फरसा देखकर श्रेणिक आत्महत्या कर लेता है!
प.पू. सुयशा श्रीजी मसा ने फ़रमाया कि राजा प्रसन्न चंद्र भगवान महावीर स्वामी के समक्ष संयम अंगीकार कर लेते हैं! राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ आते हैं और प्रसन्न चंद्र मुनि को भी वंदना करते हैं! उस समय 2 सैनिक बात करते हैं प्रसन्न चंद्र राजा ने दीक्षा तो ग्रहण कर ली है लेकिन इन्होंने अपने बच्चों का और अपने रानियों के बारे में नहीं सोचा! पड़ोसी दुश्मन राजा उन सब पर कब्जा कर लेंगे! यह बात मुनि प्रसन्न चंद्र के कानों में पड़ी तो वे अपने मन में ही युद्ध भूमि का द्वंद युद्ध करने लग गए! इधर श्रेणिक राजा ने महावीर भगवान से पूछा कि मुनि प्रसन्न चंद्र इस समय काल धर्म हो गए तो कौन सी गति में जाएंगे तब भगवान ने कमाया नर्क गति में जाएंगे! उधर मुनि मन मस्तिष्क में युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का मुकाबला करते हैं!
वे अपने माथे के मुकुट से दुश्मन को मारने के लिए हाथ ऊपर करते हैं तब उन्हें आभास होता है कि मैं तो मुनि बन गया हूं और वे बहुत ही पश्चाताप करते हैं और उन्हें क्षण भर में “केवल ज्ञान” प्राप्त हो जाता है! इधर भगवान महावीर फरमाते हैं की अब तो वे मोक्ष प्राप्त करेंगे! हमारी मनोदशा भी उसी शेयर मार्केट की तरह है जो हर पल ऊपर नीचे होते रहते हैं! हमारे मन के भावों का हमारे मन मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव पड़ता है! हर व्यक्ति एक दूसरे से बोलने चालने में, कुछ करने में, सोचने में, खाने पीने में अलग प्रवृत्ति का होता है!
इसलिए हमें चाहिए कि परिवार मे जो व्यक्ति जैसा है उसे वैसा ही अपना लें! क्योंकि जिनके साथ हम रहते हैं उन्हीं से हमारा मनमुटाव ज्यादा रहता है! लेकिन वही हमारे सबसे ज्यादा शुभचिंतक होते है! जिंदगी में हर जगह पर हर मोड़ पर, और संप्रदाय में, हर धर्म जाति के विभिन्न तरह के लोगों से मिलना जुलना होता है! हममें सभी लोगों से अच्छे सम्बन्ध बनाकर अच्छा सामंजस्य बैठाकर सभी को उनकी गलतियों पर माफ करने की क्षमता होनी चाहिए। जहां पर हमारी गलतियां हुयी है वहां पर हमें माफी मांगने की हिम्मत जुटानी चाहिए तभी हमारा संवत्सरी पर्व मनाना और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण मनाना सार्थक होगा!