चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मुथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा कि स्वार्थ का त्याग ही सबसे बड़ा तप है। दान में पदार्थ दिया जाताहै। दर्शन दिया जाता है। दान के साथ पांच प्रकार के पुण्य का फल मिलता है। अन्न का दान देने से अन्न के साथ मन पुण्य का भी बंध होता है। निमल मन वाला ही दान करता है। दान देते समय मधुर शब्द बोलने से कषाय मंद होती है। चेहरे पर दया का भाव होता है खुशी का भी भाव होता है । शरीर पुण्य का भी बंध होता है।
तप स्वयं से और दान दूसरों से संबंधित होता है। कई धनपति और साधु दान के नाम पर बहुत कंजूस होते हैं। धनपति दान के नाम पर एक पैसा नहीं देता बल्कि सब्जी खरीदते समय मटर के दाने उठाकर खा लेता है। ऐसे ही कुछ साधु दर्शन भी नहीं देते। साधु रूप दान देता है। यह साधक का सबसे बड़ा दान है। ख्याति के चक्कर में साधु सिमट जाता है। धनपतियों के हाथ का खिलौना बनकर रह जाता है। इससे दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र बंध होता है।
साधु के दर्शन मात्र से ही दर्शनाथी का उद्धार और धर्म की प्रभावना हो जाती है। अन्नदान को भी बड़ा माना है। यह परस्पर सापेक्ष होता है। स्वयं को पुण्य और दूसरों को वरदान सिद्ध होता है। रूपदान के अभाव में तप संभव नहीं है पर ख्याति संभव है। तप से शरीर और ख्याति की ममता त्यागना अनिवार्य है।
श्रेष्ठ कर्म में शरीर संलग्र है सत्कार सम्मान का भाव है नमस्कार पुण्य का बंध होता है। तप के द्वारा अहार संज्ञा और दान के द्वारा परिग्रह संज्ञा भय संज्ञा का निरोध होता है। पुण्य साथ हो तो मिट्टी का स्पर्श करने से मिट्टी सोना बन जाती है। जीवन में सुख सुविधा और सुरक्षा का द्वार खुल जाता है। पुण्य की महिमा बहुत है।
पुण्य बिना कोई भी उपलब्धि नहीं होती। पुण्य सांसारिक उपलब्धि का आधार है। जो आत्मवत् सर्व भूतेषू की भावना से जीता है वही इस पृथ्वी का भगवान है। सुख, सौभाग्य, संपदा पुण्य के सद्भाव से प्राप्त होते हैंं। यदि सुखी बनना चाहते हैं तो मूक-बधिर, अनाथ, दरिद्र प्राणियों व पक्षियों की भूख शांत करें। ताकि परोपकार के साथ साथ आपका आपके ऊपर उपकार हो सके।