वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने श्रावक के पंद्रहवें गुण दीर्घदृष्टा का वर्णन करते हुए कहा कि साधक को यही चिंतन करना चाहिए कि जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है। भविष्य के दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखते हुए इसभव के साथ परभव का भी चिंतन किया जाना चाहिए।
‘उतावला सो बावला’ इस उक्ति का उल्लेख करते हुए कहा कि जल्दबाजी में लिए गए निर्णय गलत साबित होते है। संकीर्ण विचारधारा वाला व्यक्ति आग लगने पर कुंआ खोदता है, जबकि दीर्घदुष्टा व्यक्ति पहले ही तैयारी कर लेता है। तत्कालिक सुख भविष्य के लिए दुख का कारण न बने- यह विवेक रखना चाहिए।
पेट भरने के लिए विष सहित मिठाई के बजाय विष रहित रुखा भोजन ज्यादा श्रेयस्कर है। दीर्घदृष्टि के द्वारा व्यक्ति कल के सारे प्रश्नों का हल आज ही ढूंढ लेता है। जिस प्रकार व्यक्ति यात्रा में अपने साथ भत्ता लेकर चलता है, वैसे ही जीव को अपने आगामी भवों की यात्रा के लिए धर्म का पाथेय साथ में लेना चाहिए।
इस अवसर पर जयगच्छीय स्वामीवर्य चांदमल का स्मृति दिवस तप – त्याग पूर्वक मनाया गया । मुनि ने उनके जीवन के बारे में बताते हुए कहा मात्र 15 वर्ष की उम्र में दीक्षित होकर 60 वर्ष तक पूर्ण सहिष्णुता के साथ निर्दोष चरित्र का पालन किया। वे एक ऐसे संयमी साधक थे जिन्होंने जन – जन के मानस को अपनी ज्ञान , चरित्र की सुरभि से सुरभीत कर दिया।
उनके शरीर में, मन में, वाणी में सर्वत्र कोमलता एवं स्वच्छता का साम्राज्य था। वे सदैव शुभ ध्यान में रमन करने वाले स्वाध्याय प्रेमी साधक थे। वे बड़ी शांत भावना से सब प्रकार के परेशानियों को सहन करते हुए स्वनाम धन्य चंद्रमा के समान विकसित एवं प्रसन्न रहने वाले थे। जो दुर्गुणों के अभाव से एवं सद्गुणों के सद्भाव से सदा गर्व रहित रहते थे।
जो अपनी साधना में पर्वत के समांतर थे। जो महान क्षमाशील, धर्मानुशील और शांत स्वभाव के साधक थे। ऐसे महापुरुष को सच्ची भावांजलि अर्पित करने के लिए उनके आदर्श जीवन का अनुसरण करना चाहिए। इस उपलक्ष में 85 श्रावक – श्राविकाओं ने सामूहिक एकासन तप किया।