किलपॉक श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में कहा कि जैन धर्म में द्रव्य और भाव अहिंसा को प्रमुख माना गया है। लेकिन त्रस और सूक्ष्म जीवों की अहिंसा भी बताई गई है। हमारे धर्म की ताकत अद्भुत है। त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा के कारण जैन धर्म में कोई भी छूट की मनाही है। आराधना जितनी ऊंची होती है, हृदय में अहोभाव भी उतना ही उत्कृष्ट होता है।
उपाध्याय प्रवर कहा कि परमात्मा के आज्ञाधारी पंच महाव्रत के पालन करने वाले गुरु के लिए परिचित या अपरिचित का प्रश्न हमारे सामने खड़ा नहीं होना चाहिए। सव्व साहूणं की भावना से हमें उन्हें नमस्कार करना चाहिए। धर्मसत्ता के यहां भी एक प्रणाली होती है। कृष्ण भगवान ने 18000 साधुओं को वंदन करके सम्यक्त्व और तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया। उनको वंदन करते देख उनके सेवक वीरासावली ने भी 18000 वंदन किया। सम्यकज्ञान होने के कारण कृष्ण भगवान का यह भाव वंदन हुआ जबकि वीरासावली का सम्यकज्ञान के अभाव में यह द्रव्यवंदन हुआ। स्वाध्याय का जीवन अपनाने पर रागी भी वैरागी बन जाता है। सम्यक ज्ञान के अभाव में हर कोई क्रिया अधूरी होती है। भक्ति भाव तब ही पैदा हो सकता है जब अपने जीवन में ज्ञान समाहित हो।
उपाध्यायश्री कहा कि सम्यक ज्ञान के बिना क्रिया अधूरी रहती है। यदि क्रिया को संबल व सफल बनानी है तो उनमें भावों को उत्कृष्ट बनाने के लिए सूत्र और अर्थ का ज्ञान व स्वाध्याय करना चाहिए। आपत्ति में जो निडर रहता है, धैर्यता रखता है, उसे जीवन में कोई तकलीफ नहीं आती। कुदरत का नियम है, जिसको जो सहन होता है उतनी ही तकलीफ कुदरत देती है। जैन धर्म में हर चीज को गहनता से बताया गया है। अज्ञानता के कारण हुई गलती से बहुत दोष लगते हैं। विवेक के अभाव में सब गड़बड़ होती है। हमें त्रस और स्थावर दोनों जीवों का रक्षण करना चाहिए। परमात्मा 18 दोषों अज्ञान, क्रोध, मद- मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथून, राग, द्वेष, ईर्ष्या, और निंद्रा से रहित होते हैं।