श्री जयमल जैन श्रावक संघ के तत्वावधान में वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में श्रावक के 12 व्रतों के शिविर के दौरान जयधुरंधर मुनि ने कहा एक श्रावक जीने के लिए खाता है खाने के लिए नहीं जीता है।
इसी कारण से मात्र उस साधना के साधन शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए आहार करते हुए बिल्कुल स्वाद नहीं ग्रहण करना चाहिए। पसंद ना पसंद की भावना ना रखते हुए जो भी आहार जैसा भी आहार थाली में आया उसे अनासक्त भाव से ग्रहण कर लेना चाहिए।
मुनि ने तप के 12 भेदों में से एक रस परित्याग रूपी तप का उल्लेख करते हुए कहा कि एक साधक खाते-पीते भी उपवासी बन सकता है यदि वो खाने-पीने में राग और द्वेष की भावना नहीं लाता ।
सातवें व्रत में वर्णित 26 बोलों के क्रम को गति प्रदान करते हुए मुनि ने कहा एक श्रावक को विभिन्न प्रकार की उपलब्ध वनस्पतियों में से जितनी प्रकार की हरी सब्जियों का उपयोग करना है उसकी मर्यादा कर लेनी चाहिए अन्यथा जिन वनस्पतियों का सेवन करना असंभव है किंतु परिमाण ना करने के कारण उस श्रावक के आश्रवों का द्वार खुला रहता है ।
आगाम युग में आनंद श्रावक द्वारा रखी हुई हरी सब्जियों की मर्यादा का उल्लेख करते हुए कहा उनका अनुसंधान एवं वर्तमान में वैज्ञानिकों द्वारा किए गए प्रयोग लगभग समतुल्य है । लोकी , सुआ, पालक, बथुआ , भिंडी इन पांच प्रकार की सब्जियों के सेवन से उन्होंने हृदय रोग , हिमोग्लोबिन की कमी , भूलने की आदत, वात-पित्त आदि बीमारियों से छुटकारा प्राप्त कर लिया ।जोड़ों में चडचडपन भी दूर रह जाता है।
प्रतिदिन भोजन की सीमा कर लेने से बार-बार भोजन ना करने से लार आसानी से बन सकती है। इसी के फलस्वरूप रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जा सकती है ।अनजाने एवं जिस फल के गुण धर्म नहीं मालूम है उन फलों का भी त्याग कर देना चाहिए । शुद्ध एवं स्वच्छ पानी के सेवन की मर्यादा करने से अपच, कब्जी इत्यादि रोग से बचा जा सकता है।
एक स्वस्थ व्यक्ति को अपने शरीर की तंदुरुस्ती बनाया रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी पीना चाहिए ।बार-बार पानी बदलते रहने से पेट में किटाणों के पैदा होने की संभावना रहती है।
अंत में जयगच्छीय सुश्रावक नरेश कुमार बोकडिया एवं चंद्रकांता संकलेचा को श्रद्धांजलि अर्पित की गई ।जयमल जैन श्रावक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिखरचंद बेताला ,शांतिलाल लुंकड़ ,धर्मचंद लुंकड़ ने अपने भाव व्यक्त किए संचालन के एल जैन ने किया।