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स्वयं के अवतरण के लिए ही है धर्म: डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.

स्वयं के अवतरण के लिए ही है धर्म: डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.

🛕 *स्थल: श्री राजेन्द्र भवन चेन्नई*

🪷 *विश्व वंदनीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न राष्ट्रसंत, संघ एकता शिल्पी, आचार्य श्रीमद् विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.* के प्रवचन के अंश

🪔 *विषय :अमर कुमार की अमर कथा*🪔

~ धर्म केवल दुखों से मुक्ति पाने के लिए या सुख प्राप्ति के लिए ही नहीं है किंतु स्वयं के अवतरण के लिए ही है।

~ जैन दर्शन की मूलभूत परंपरा अदृश्य शक्तियों के आविष्कार से जुड़ी है।

~ अमर कुमार ने स्वयं के दुखों की मुक्ति के लिए देवी देवता को विनती नहीं की किंतु अमर कुमार की सम्यक् श्रद्धा के बल से देवी देवता के मालिक ऐसे इंद्र महाराज खींचकर उनकी सेवा में हाजिर हो गया और आग का सोने का सिंहासन के रूप में निर्माण कर दिया था।

~ जहां अंधश्रद्धा का जोर बढ़ता है वहां धर्म की शुद्धि का नाश होता है।

~ सबसे बड़ा पाप स्वार्थ का है क्योंकि यह पाप न भाई, न बहन, न माता, न पिता किसी की चिंता नहीं करता और स्वयं की इच्छा को ही पूर्ण करना चाहता है

~ प्रभु महावीर स्वामी ने परिग्रह के लिए कहा कि वस्तुओं को इकट्ठा करना वह परिग्रह नहीं है किंतु वस्तुओं के लिए राग का भाव, मेरे पने का भाव वह परिग्रह है।

~ प.पू. प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी म. ने स्वयं के जीवन में खुद के लिए द्वेष, वैर रखने वाले जीवो के लिए भी स्नेह भाव, मैत्री भाव, करुणा का भाव रखा था,

~ जो परिवार में धर्म की महिमा, धर्म की पालन, धर्म की सुरक्षा नहीं है वहां दु:ख ही दु:ख है।

~ यदि जीवन में संस्कार और संस्कृति हमारे में नहीं तो परिवार में भी नहीं आएगा।

~ जो साधक जगत के सर्वजीव और सर्व चीजों के लिए राग-द्वेष मुक्त है वह साधक ही स्वयं के जीवन को अमर बना देता है।

~ जैन दर्शन केवल कर्म के परिवर्तन के लिए ही नहीं किंतु हमारे भावों, मान्यता के परिवर्तन के लिए ही जैन दर्शन है।

~

*”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*
🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪

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